चित्र -गूगल से साभार |
एक नवगीत -बासीपन हवाओं में
फूल तो
हैं किन्तु
बासीपन हवाओं में |
लिख रहे
मौसम
सुहाना हम कथाओं में |
यंत्रवत
होने लगे
संवेदना के स्वर ,
मौन सा
रहने लगा है
कहकहों का घर ,
क़ैद हैं
हम आधुनिकता के
प्रभावों में |
जहाँ जलसा है
वहीं पर
त्रासदी है ,
रोज
आदमखोर
होती यह सदी है ,
लिख रहा
गोधूलि बेला
दिन ,दिशाओं में |
रोशनी है
रोशनी है
मगर गुम
होते दिया -बाती ,
अब मुंडेरों पर
सुबह
चिड़िया नहीं गाती ,
अब नहीं
सम्वाद
है सखियों -सखाओं में |
badhiya geet !
ReplyDeletebadhiya geet !
ReplyDeleteसुन्दर गीत।
ReplyDeleteकड़वे यथार्थ की ओर ध्यान दिलाते भाव।
भाई अरुण चन्द्र राय जी आदरनीय सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी आप दोनों का बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी गीत
ReplyDeleteसच को उकेरती अभिव्यक्ति