चित्र -गूगल से साभार |
एक गीत -शहर के एकांत में
शहर के
एकांत में
हमको सभी छलते |
ढूंढने से
भी यहाँ
परिचित नहीं मिलते |
बांसुरी के
स्वर कहीं
वन -प्रान्त में खोए ,
माँ तुम्हीं को
याद कर
हम देर तक रोए ,
धूप में
हम बर्फ़ के
मानिन्द हैं गलते |
रेलगाड़ी
शोरगुल
सिगरेट के धूँए ,
प्यास
अपनी ओढ़कर
बैठे सभी कूँए ,
यहाँ
टहनी पर
कंटीले फूल बस खिलते |
गाँव से
लेकर चले जो
गुम हुए सपने ,
गांठ में
दम हो तभी
ये शहर हैं अपने ,
यहाँ
सांचे में सभी
बाज़ार के ढलते |
भीड़ में
यह शहर
पाकेटमार जैसा है ,
यहाँ पर
मेहमान
सिर पर भार जैसा है ,
भीड़ में
तनहा हमेशा
हम सभी चलते |
[नवगीत की पाठशाला से साभार -मेरे इस गीत को आदरणीय पूर्णिमा जी ने नवगीत की पाठशाला में प्रकाशित किया था ]
सटीक चित्रण लिए काव्य रचना ..... गहरी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत....
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी भाव!!
सादर
अनु
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (17.01.2014) को " सपनों को मत रोको (चर्चा -1495)" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,धन्यबाद।
ReplyDeleteइस शहर में हर शख्श परेशान सा क्यूँ है...शहरों की विडंबना को बहुत खूबसूरती से उकेरा है आपने...
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शनिवार 18/01/2014 को लिंक की जाएगी...............
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in
कृपया पधारें ....धन्यवाद!
सहजता से शहरों को व्यक्त करती शब्द-थिरकन।
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी भाव सटीक काव्य रचना !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteआप सभी का हृदय से आभार |
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर नवगीत .. बहुत खूब ..
ReplyDeleteबेहद गहन व सार्थक प्रस्तुति।।।
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