चित्र -गूगल से साभार |
एक गीत -
इस रक्तरंजित सुबह का मौसम बदलना
इस रक्त रंजित
सुब्ह का
मौसम बदलना |
या गगन में
सूर्य कल
फिर मत निकलना |
द्रौपदी
हर शाख पर
लटकी हुई है ,
दृष्टि फिर
धृतराष्ट्र की
भटकी हुई है ,
भीष्म का भी
रुक गया
लोहू उबलना |
यह रुदन की
ऋतु नहीं ,
यह गुनगुनाने की ,
तुम्हें
आदत है
खुशी का घर जलाने की ,
शाम को
शाम -ए -अवध
अब मत निकलना |
बहुत अच्छा व्यंग्य गीत है। इसे फेसबुक में शेयर किया हूँ।
ReplyDeleteआक्रोश को शब्द देने के लिए आभार...
ReplyDeleteकविता इतनी मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है ।
ReplyDeleteआप सभी का शुक्रिया बहुत दिनों से ब्लॉग पर निष्क्रिय सा हो गया था |फिर भी आपका सहज स्नेह पाकर गदगद हूँ |आभार सहित
ReplyDeleteबढ़िया चित्रगीत।
ReplyDeleteशायद कभी हालात बदलें!
उत्कृष्ट एवं समसामयिक ......
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ४५ साल का हुआ वो 'छोटा' सा 'बड़ा' कदम - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबेहद उम्दा
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteद्रौपदी
ReplyDeleteहर शाख पर
लटकी हुई है ,
दृष्टि फिर
धृतराष्ट्र की
भटकी हुई है ,
भीष्म का भी
रुक गया
लोहू उबलना |
...............................हालात अब बदलने ही होंगे।