चित्र -गूगल से साभार |
एक गीत -
हरे वन की चाह में
हरे वन की
चाह में फिर
पंख चिड़ियों के जले हैं |
यहाँ ऋतुएं
हैं तिलस्मी
और मौसम दोगले हैं |
प्यास होंठों पर
सजाए हम
नदी से लौट आए ,
कौन है ये
आसमां में
धूम्र के बादल सजाए ,
हो गया
जनतंत्र बहरा
या कि हम सब तोतले हैं |
हम पठारों पर
बसे हैं
फूल इन पर क्या खिलेंगे ,
हर कदम पर
हमें कुछ
कांटे बबूलों के मिलेंगे ,
हम सुरंगों
में घिरे हैं
भले मीलों तक चले हैं |
हम सुरंगों
में घिरे हैं
भले मीलों तक चले हैं |
हम हँसे तो
इस व्यवस्था ने
हमारे होंठ काटे ,
रो दिए तो
धर्मगुरुओं ने
हमारे रुदन बांटे ,
हमें रहने दो
महज इन्सान
बहुत सुन्दर नवगीत है आज की परिस्थियों पर सार्थक व्यंग है हरे वन की
ReplyDeleteचाह में फिर
पंख चिड़ियों के जले हैं |
यहाँ ऋतुएं
हैं तिलस्मी
और मौसम दोगले हैं |
बहुत सुन्दर हार्दिक बधाई तुषार जी
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteआदरणीया शशि जी और अंशु जी आप दोनों का शुक्रिया |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (25-08-2014) को "हमारा वज़ीफ़ा... " { चर्चामंच - 1716 } पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteआपका ब्लॉग देखकर अच्छा लगा. अंतरजाल पर हिंदी समृधि के लिए किया जा रहा आपका प्रयास सराहनीय है. कृपया अपने ब्लॉग को “ब्लॉगप्रहरी:एग्रीगेटर व हिंदी सोशल नेटवर्क” से जोड़ कर अधिक से अधिक पाठकों तक पहुचाएं. ब्लॉगप्रहरी भारत का सबसे आधुनिक और सम्पूर्ण ब्लॉग मंच है. ब्लॉगप्रहरी ब्लॉग डायरेक्टरी, माइक्रो ब्लॉग, सोशल नेटवर्क, ब्लॉग रैंकिंग, एग्रीगेटर और ब्लॉग से आमदनी की सुविधाओं के साथ एक
ReplyDeleteसम्पूर्ण मंच प्रदान करता है.
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बहुत सटीक और उम्दा चित्रण
ReplyDeleteहम हँसे तो
इस व्यवस्था ने
हमारे होंठ काटे ,
रो दिए तो
धर्मगुरुओं ने
हमारे रुदन बांटे ,
हमें रहने दो
महज इन्सान
हम इसमें भले हैं |
सचमुच ये नवगीत है,बहुत सुंदर..भाव
ReplyDeleteVery nice writing.
ReplyDeleteI can sentences
I Like it very much..