Monday, 10 September 2012

एक प्रेमगीत -तुम्हारे नहीं होने पर यहाँ कुछ भी नहीं होता

चित्र -गूगल से साभार 
तुम्हारे नहीं होने पर यहाँ कुछ भी नहीं होता 
तुम्हारे 
नहीं होने पर 
यहाँ कुछ भी नहीं होता |
सुबह से 
शाम मैं 
खामोशियों में जागता -सोता |

तुम्हारे 
साथ पतझर में 
भी  जंगल सब्ज लगता है ,
सुलगते 
धुँए सा सिगरेट के, 
अब  चाँद दिखता  है ,
भरे दरिया में 
भी लगता है 
जैसे जल नहीं होता |

नहीं हैं रंग 
वो स्वप्निल 
क्षितिज के इन्द्रधनुओं में ,
न ताजे 
फूल में खुशबू 
चमक गायब जुगुनुओं में ,
प्रपातों में 
कोई खोया हुआ 
बच्चा दिखा रोता |

मनाना 
रूठना फिर 
गुनगुनाना और बतियाना ,
किताबों में 
मोहब्बत का 
नहीं होता ये अफ़साना ,
हमारे सिर 
का भारी  बोझ 
अब कोई नहीं ढोता |

किचन भी 
हो गया सूना 
नहीं अब बोलते बर्तन ,
महावर पर 
कोई कविता नहीं 
लिखता है अन्तर्मन |
टंगे हैं 
खूंटियों पर अब 
कोई कपड़े नहीं धोता |


खिड़कियों से 
डूबता सूरज 
नहीं हम देख पाते ,
अब परिन्दों 
के सुगम -
संगीत मन को नहीं भाते ,
लौट आओ 
झील में डूबें -
लगाएं साथ गोता |
चित्र -गूगल से साभार 

12 comments:

  1. विरह गीत तो बन ही गया उनके न होने से ... बहुत सुंदर

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  2. इस गीत में प्रयुक्त कुछ प्रयोग जो विरह की वेदना को सजीव कर जाते हैं सर्वथा नवीन और अच्छे लगे - जैसे -
    * ,सुलगते धुँए सा सिगरेट के अब चाँद दिखता है
    ** चमक गायब जुगुनुओं में
    *** ,प्रपातों में कोई खोया हुआ बच्चा दिखा रोता

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  3. विरह की अद्भुत ,प्रशंसनीय अभिव्यक्ति,,,,,तुसार जी बधाई ,,,

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  4. कविता कोमल भावों को लिए है जयकृष्ण भाई मगर बस इतना ही याद रखियेगा झील दलदली न हो :-)

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  5. विरह को खूब जीया है आपने इस नवगीत में। सभी बंद लाज़वाब हैं। मनोज जी ने जो उदाहरण दिये उनके सापेक्ष अंतिम बंद वह कशिश नहीं छोड़ पा रहा है जो इस गीत की मांग है। देखियेगा..ईश्वर का वरदान आपके साथ है।

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  6. अंतिम बंद जबरदस्ती बढ़ा दिया गया है भाई देवेन्द्र जी आपका सुझाव शिरोधार्य है |

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  7. बिन तेरे, सब रुका रुका, सब चुका चुका लगता है।

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  8. वाकई किसी का चले जाना सारे जहाँ को सूना कर जाता है..... विरह कि सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  9. शालिनी जी यह कुछ दिन के लिए पत्नी दूर हो उसके लिए है |हमेशा के लिए विदा हो जाने वालों के लिए नहीं है |

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  10. जैसे ग़ज़ल में हासिले ग़ज़ल शेर होता है वैसे ही इस प्रेम गीत में इस बन्द को कहूँगा

    नहीं हैं रंग वो स्वप्निल क्षितिज के इन्द्रधनुओं में ,न ताजे फूल में खुशबू चमक गायब जुगुनुओं में ,प्रपातों में कोई खोया हुआ बच्चा दिखा रोता

    विरह को इतनी कोमलता से अभिव्यक्त कर पाना हंसी खेल नहीं है
    भाई जी आप कमाल लिखते हैं

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  11. प्रशंसनीय अभिव्यक्ति...

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  12. ''टंगे है खूटियों में अब कोई कपडे नहीं धोता''क्या बात है तुषार जी ';बहुत सजीव चित्र खीचा है ';

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