चित्र -गूगल से साभार |
जबान होते हुए भी जो बेजुबान रहे
हमारे मुल्क में ऐसे ही हुक्मरान रहे
जो मीठी झील में मछली पकड़ना सीख गए
परों के रहते परिन्दे वो बे -उड़ान रहे
ये बात और है ये धूप मुझसे हार गई
मगर दरख़्त कहाँ मेरे सायबान रहे
महल हैं उनके जिन्हें नींव का पता ही नहीं
मकां बनाया जिन्होंने वो बे -मकान रहे
मैं फेल होने के डर से हयात पढ़ता रहा
मेरे सफ़र में हमेशा ही इम्तिहान रहे
पतंगें रख के उड़ाना ही उनको भूल गया
मेरे शहर में धुंए वाले आसमान रहे
वो इक शिकारी था छिपकर शिकार करता रहा
शरीक- ए- ज़ुर्म थे हम भी कि इक मचान रहे
कुतुबमीनार पे चढ़कर वो हमको भूल गए
हम उनके वास्ते सीढ़ी के पायदान रहे
हमारे सिर पे जरूरत का बोझ था इतना
बुजुर्ग देह के भीतर भी नौजवान रहे
हम अपनी जंग सरहदों पे कभी हारे नहीं
एक से बढ़ कर एक शेर वाह वाह वाह वाह वाह ...
ReplyDeleteभाई जी ,बहुत खूबसूरत बन पडी है मुकम्मल ग़ज़ल ही ..आपकी लेखनी में बला की खूबसूरती है !
बेहद शानदार गज़ल... हरेक शेर अपनाप में नायब है .... पहली बार आपको पढ़ा ...और एक बार में ही आपकी लेखनी के मुरीद हो गए.
ReplyDeleteवाह....
ReplyDeleteबेहतरीन गज़ल...
पतंगें रख के उड़ाना ही उनको भूल गया
मेरे शहर में धुंए वाले आसमान रहे ..
लाजवाब शेर..
सादर
अनु
बहुत ही सुन्दर और प्रभावी अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteपहला ही शेर ज़बरदस्त ... तीखा प्रहार हुक्मरानों पर ... बहुत सुंदर गज़ल
ReplyDeleteवाह.... बेहतरीन पंक्तियाँ ....
ReplyDeleteहम अपनी जंग सरहदों पे कभी हारे नहीं
ReplyDeleteघरों की जंग में अक्सर लहूलुहान रहे
lajavab mantmugdh hoon itne gahre bhav ki kya kahun
rachana
आप सभी का बहुत -बहुत आभार |आपकी तारीफ़ से हमारा मनोबल बढ़ता है |फिर हम कुछ और नया कहने या रचने की कोशिश करते हैं |
ReplyDeleteबढ़िया ग़ज़ल है.सभी शेर लाजवाब.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...
ReplyDeleteबेहतरीन गजल...
:-)
ज़िन्दगी के बीच से आपने भावनाओं के कई रूप समेट-सहेज कर नायाब शे’र पिरो लाए हैं। मुझे यह शे’र बड़ा मन को छुने वाला लगा --
ReplyDeleteकुतुबमीनार पे चढ़कर वो हमको भूल गए
हम उनके वास्ते सीढ़ी के पायदान रहे
खूबसूरत ग़ज़ल हुई है बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteएक और बेहतरीन गज़ल। ऐसा कम ही हो पाता है कि गज़ल का हर शेर पढ़कर दिल बाग-बाग हो जाय।..बहुत बधाई।
ReplyDeleteआप सभी का बहुत -बहुत शुक्रिया |
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