Friday, 21 October 2011

एक गीत -सन्दर्भ -घर से दूर खड़ी दीवाली

चित्र -गूगल से साभार 
घर से दूर खड़ी दीवाली
घर से दूर 
खड़ी दीवाली 
सारी रात अमावस काली |

महालक्ष्मी 
गणपति बाबा 
धनकुबेर हो गए प्रवासी ,
फिर भी 
ले पूजा की थाली 
बाट जोहती पूरनमासी ,
संवरी बहू 
न बिंदिया चमकी 
फीकी है होठों की लाली |

मन में बस 
फुलझड़ियां छूटीं 
महंगाई के डर के मारे ,
घर -आंगन 
खपरैल -खेत में 
अंधकार ने पांव पसारे ,
घर की मलकिन 
उलटे -पलटे 
खाली जेबें बटुआ खाली |

हुई पीलिया ग्रस्त 
रोशनी 
सिकुड़ गयी दीये की बाती ,
उतर न पाया 
भूत कर्ज का 
उतर न पाई साढ़ेसाती ,
जितने भी 
सपने देखे थे 
सबके सब हो गए मवाली |
चित्र -गूगल से साभार 
[मेरा यह गीत जनसत्ता वार्षिकांक 2010[ कोलकाता से ]में प्रकाशित है ]

8 comments:

  1. सुंदर दीप मय प्रस्तुति।

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  2. दीवाली को अभी से गुलजार कर दिया...जनसत्ता में प्रकाशन की भी बधाई.

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुतिकरण्।

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  4. बहुत ही खुबसूरत प्रस्तुति ....दीवाली की शुभकामनाएँ

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  5. महालक्ष्मी
    गणपति बाबा
    धनकुबेर हो गए प्रवासी ,
    फिर भी
    ले पूजा की थाली
    बाट जोहती पूरनमासी ,
    यथार्थ चित्रण का सुन्दर रूप निखर गया है, आकर्षक प्रभावशाली सृजन राय साहब बहुत -२ बधाईयाँ जी / ,

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  6. फिर भी मचेगी धूम धाम से दीवाली ..क्यों जयकृष्ण जी ?

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  7. बहुत सुंदर प्रस्‍तुति !!

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