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चित्र साभार गूगल |
प्रकृति अपने धर्म को भूल गई है या हमसे बदला ले रही है. प्रकृति का अंधाधुंध दोहन आज मौसम को बदरंग बना रहा है. आसाढ़ में भी एक भी बादल नहीं हैं. आकाश सुना है झीलें जलविहीन. गीत इसी निराशा की बानगी है. एक प्रयास है. सादर इंद्र देवता कृपा करे.
एक गीत -गीत में वंशी नहीं मादल नहीं है
पृष्ठ सूने हैं
किताबों के
गीत में वंशी नहीं मादल नहीं है.
कौन ऋतुओं से
भला पूछे
एक भी आसाढ़ में बादल नहीं है.
हरे पत्ते
धूप में पीले
पाँख खुजलाती हुई चिड़िया,
गंध वाले
फूल मुरझाए
तितलियों को ढूंढती गुड़िया,
पाँव नंगे आँख में काजल नहीं है.
मानसूनों की
किताबों में
मेघ -जल का उद्धरण क्यों है,
चाँदनी की
सुभग रातों में
धूप का वातावरण क्यों है?
मत्स्य गंधा
झील में जलकुंभियाँ
क्या हुआ कि एक भी शतदल नहीं है.
मौसमों के
सगुन पंछी अब
रात -दिन तूफ़ान लाते हैं,
प्यास से
व्याकुल परिंदे, वन
बेसुरे हर गीत गाते हैं,
घिस रहा हूँ मैं जिसे संदल नहीं है.
कवि -जयकृष्ण राय तुषार
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चित्र साभार गूगल |