चित्र साभार गूगल |
प्रकृति अपने धर्म को भूल गई है या हमसे बदला ले रही है. प्रकृति का अंधाधुंध दोहन आज मौसम को बदरंग बना रहा है. आसाढ़ में भी एक भी बादल नहीं हैं. आकाश सुना है झीलें जलविहीन. गीत इसी निराशा की बानगी है. एक प्रयास है. सादर इंद्र देवता कृपा करे.
एक गीत -गीत में वंशी नहीं मादल नहीं है
पृष्ठ सूने हैं
किताबों के
गीत में वंशी नहीं मादल नहीं है.
कौन ऋतुओं से
भला पूछे
एक भी आसाढ़ में बादल नहीं है.
हरे पत्ते
धूप में पीले
पाँख खुजलाती हुई चिड़िया,
गंध वाले
फूल मुरझाए
तितलियों को ढूंढती गुड़िया,
पाँव नंगे आँख में काजल नहीं है.
मानसूनों की
किताबों में
मेघ -जल का उद्धरण क्यों है,
चाँदनी की
सुभग रातों में
धूप का वातावरण क्यों है?
मत्स्य गंधा
झील में जलकुंभियाँ
क्या हुआ कि एक भी शतदल नहीं है.
मौसमों के
सगुन पंछी अब
रात -दिन तूफ़ान लाते हैं,
प्यास से
व्याकुल परिंदे, वन
बेसुरे हर गीत गाते हैं,
घिस रहा हूँ मैं जिसे संदल नहीं है.
कवि -जयकृष्ण राय तुषार
चित्र साभार गूगल |
सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक आभार. सादर प्रणाम
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" मंगलवार 20 जून 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteवाह
ReplyDeleteहार्दिक आभार. सादर अभिवादन सहित
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना मंगलवार २० जून २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आपको सादर अभिवादन. हार्दिक आभार सहित
Deleteबदलते हुए मौसम का मिज़ाज पढ़ती हुई सुंदर रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया अनीता जी. सादर नमस्ते
Deleteप्रकृति जब क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया देती है तो उसके परिणाम बेहद कष्टकारी होते हैं।
ReplyDeleteगहन चिंतन उकेरती सराहनीय रचना सर।
सादर।
सादर अभिवादन देवि. हार्दिक आभार
Deleteमानसूनों की
ReplyDeleteकिताबों में
मेघ -जल का उद्धरण क्यों है,
चाँदनी की
सुभग रातों में
धूप का वातावरण क्यों है?
सठे साठ्यम् समाचचरेत् का पालन करनी लगी है प्रकृति भी अब शायद...
बहुत ही लाजवाब गीत
👌👌👌🙏🙏🙏
सादर प्रणाम. हार्दिक आभार
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