कवि -श्री अमरनाथ उपाध्याय |
कविता -हवा ये प्राण तक जाती
चित्र -गूगल से साभार |
लगे,हमसे है बतियाती,
"पढ़ी क्या मेरी सब पाती?
क्या तुझको याद ना आती,
वो सारी बतियन जज़्बाती ?
तूँ बन जा स्नेह,मैं बाती,
हरें सब विपदा घहराती",
छुअन में ताप ना ठिठुरन,
लदी बहुपुष्प के अभरन,
करे दिनरात ये विहरन,
लगे सब क़ुदरती सुमिरन,
कदाचित्,ग्रामप्रान्तर है!!!
सुरीली क्या ये कानों में ?
सुनो,धुन रूह तक जाती,
क्या घन्टा कारख़ाना है?
नहीं वह देहभर प्रेरे !
ये उरअन्तर ले है टेरे !!
लगे ये मध्यमायोगी,
निकस आई परा होगी,
कदाचित् ,वेणुकीर्तन है!!!
वो देखो अलसगमना कौन?
क्या कोई रुग्णकाया है?
नहीं,ये बिम्बाफल लाली,
निहारे हिरणी ज्यों आली,
विनय से भरी सी इक डाली,
लटें छतनार औ' काली,
सुशोभे कर्ण दो बाली,
दृगें हैं सुरमयी काली,
कदाचित्,ग्रामबाला है!!!
वो बाँकापन औ'अल्हड़पन ,
लगे ये क़ुदरती बचपन,
सुनो वो तोतली बतियाँ,
दो टुकटुक ताकती अँखियाँ ,
वो सुन्दर भाल है उन्नत,
चितवते पाएँ दृग जन्नत ,
करे ये दूर सब क़िल्लत ,
पितरकुल माँगे यूँ मन्नत,
कदाचित् ,भावीभारत है !!!
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 19-11-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2165 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
सुन्दर
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