Sunday, 5 December 2010

बड़की भौजी - कवि कैलाश गौतम

 कवि कैलाश गौतम
कैलाश गौतम हिन्दी के अप्रतिम कवि हैं। गीत, कविता, दोहे, व्यंग्य कोई भी विषय उनकी कलम के लिए अपरिचित नहीं है। काव्यमंचों पर श्रोताओं के मन को झकझोरने वाले इस कवि की रचनाओं में विविधता देखने को मिलती है। कैलाश जी के बारे में सुप्रसिद्ध गीतकवि यश मालवीय कहते हैं - ‘‘कैलाश गौतम रिश्तों की छुवन और सम्बन्धों की मिठास के अप्रतिम कवि हैं। उनकी कविता ‘बड़की भौजी’ भारतीय जनमानस में पैठी पूजा-प्रार्थना जैसी एक ऐसी स्त्री है जो घर-परिवार को दिये की लौ की तरह प्रतिक्षण सहेजती रहती है। आत्मीयता का आलोक कदम-कदम पर अभिव्यंजित करने वाले कैलाश जी शायद इसीलिए अपने समकालीनों के बीच एकदम अलग खड़े किनारे के पेड़ जैसे नजर आते हैं।’’

09 दिसम्बर कैलाश गौतम की चैथी पुण्यतिथि है। इस अवसर पर हम उनकी लोकप्रिय रचना ‘बड़की भौजी’ अपने पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं -

 बड़की भौजी- कवि कैलाश गौतम

जब देखो तब बड़की भौजी हंसती रहती है
हंसती रहती है कामों में फंसती रहती है
झर-झर झर झर हंसी होठ पर झरती रहती है
घर का खाली कोना भौजी भरती रहती है।।

डोरा देह कटोरा आंखें जिधर निकलती है
बड़की भौजी की ही घंटों चर्चा चलती है
खुद से बड़ी उमर के आगे झुककर चलती है
आधी रात गये तक भौजी घर में खटती है।।

कभी न करती नखरा तिल्ला सादा रहती है
जैसे बहती नाव नदी में वैसे बहती है
सबका मन रखती है घर में सबको जीती है
गम खाती है बड़की भौजी गुस्सा पीती है।।

चौका चूल्हा खेत कियारी सानी पानी में
आगे-आगे रहती है कल की अगवानी में
पीढ़ा देती पानी देती थाली देती है
निकल गयी आगे से बिल्ली गाली देती है।।

भौजी दोनों हाथ दौड़कर काम पकड़ती है
दूध पकड़ती दवा पकड़ती दाम पकड़ती है
इधर भागती उधर भागती नाचा करती है
बड़की भौजी सबका चेहरा बांचा करती है।।

फुर्सत में जब रहती है खुलकर बतियाती है
अदरक वाली चाय पिलाती पान खिलाती है
भइया बदल गये पर भौजी बदली नहीं कभी
सास के आगे उलटे पल्ला निकली नहीं कभी।।

हारी नहीं कभी मौसम से सटकर चलने में
गीत बदलने में है आगे राग बदलने में
मुंह पर छींटा मार मार कर ननद जगाती है
कौआ को ननदोई कहती हंसी उड़ाती है।।

बुद्धू को बेमशरफ कहती भौजी फागुन में
छोटी को कहती है गरी चिरौंजी फागुन में
छठे समासे गंगा जाती पुण्य कमाती है
इनकी उनकी सबकी डुबकी स्वयं लगाती है।।

आंगन की तुलसी को भौजी दूध चढ़ाती है
घर में कोई सौत न आये यही मनाती है
भइया की बातों में भौजी इतना फूल गयी
दाल परसकर बैठी रोटी देना भूल गयी।।
चित्र से picasaweb.google.com साभार

16 comments:

  1. पीढ़ा देती पानी देती थाली देती है
    निकल गयी आगे से बिल्ली गाली देती है
    वाह भौजी वाह...............

    जितनी प्यारी और संस्कारित भौजी हैं उतनी खूबी से उनकी चर्चा भी की है भाई कैलाश गौतम जी ने.

    भौजी को उनके प्यारेपन की ,कवि को सुदर अभिव्यक्ति की और आपको बेहतरीन पोस्ट लगाने की बधाई.

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  2. Is kavita ne 1 baar phir pramadit kar diya ki kailash gautam apni rachnaaon mein humesha zinda raheinge. Unki smriti kko pranam. aur yeh kavita blog par dene ke liye aapko anekanek badhai......

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  3. badki bhauji kailashji ki ek apratim rachna haikamlesh rai

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  4. bahut sundar kavita riste naton ko sahejati kavita akhilesh

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  5. इस उम्दा प्रस्तुति के लिए शब्द नहीं ......शुक्रिया

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  6. बहुत सुन्दर गीत पढ़वाया आपने.

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  7. वपीढ़ा देती पानी देती थाली देती है
    निकल गयी आगे से बिल्ली गाली देती है
    वाह भौजी वाह...............


    बहुत बढिया गीत है ..

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  8. Behtareen rachna tusharji kailashji apni kavitaon ke karan sadaiv jeevit rahenge vinod shukla

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  9. बहुत शानदार !

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  10. आंगन की तुलसी को भौजी दूध चढ़ाती है
    घर में कोई सौत न आये यही मनाती है

    एक सुसंस्कृत गृहणी के कार्यकलापों को खूब उकेरा है कैलाश जी ने ......
    अच्छी रचना ....

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  11. ओह ....क्या कहूँ ...मन भावुक हो गया...

    कोटिशः आभार आपका अप्रतिम रचना पढवाने के लिए..

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  12. आदरणीय बंधुवर जयकृष्ण राय तुषार जी
    सप्रेम नमस्कार !

    आप ऐसी ऐसी रचनाएं पढ़ने के अवसर दे रहे हैं कि मैं आभार से भर जाता हूं आपके प्रति !
    बड़की भौजी ऐसी रचना है , कि हर सुखी संयुक्त परिवार वाले पाठक को अपनी ही रचना लगेगी ।
    पहले पढ़ कर प्रतिक्रिया नहीं दे पाया था । गीत की कौनसी पंक्ति को उद्धृत न करूं, यह असमंजस तब भी थी अब भी है ।

    … पुनः पढ़ा ; मन 20-25 वर्ष पीछे चला गया ।
    काश ! समय को ठहरा कर रखने की या लौटा लाने की सामर्थ्य होती … … …
    श्रद्धेय कवि कैलाश गौतम जी को बहुत बहुत बधाई, आभार और हृदय से प्रणाम !

    ~*~नव वर्ष 2011 के लिए हार्दिक मंगलकामनाएं !~*~

    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  13. आपकी रचना वाकई तारीफ के काबिल है .

    * किसी ने मुझसे पूछा क्या बढ़ते हुए भ्रस्टाचार पर नियंत्रण लाया जा सकता है ?

    हाँ ! क्यों नहीं !

    कोई भी आदमी भ्रस्टाचारी क्यों बनता है? पहले इसके कारण को जानना पड़ेगा.

    सुख वैभव की परम इच्छा ही आदमी को कपट भ्रस्टाचार की ओर ले जाने का कारण है.

    इसमें भी एक अच्छी बात है.

    अमुक व्यक्ति को सुख पाने की इच्छा है ?

    सुख पाने कि इच्छा करना गलत नहीं.

    पर गलत यहाँ हो रहा है कि सुख क्या है उसकी अनुभूति क्या है वास्तव में वो व्यक्ति जान नहीं पाया.

    सुख की वास्विक अनुभूति उसे करा देने से, उस व्यक्ति के जीवन में, उसी तरह परिवर्तन आ सकता है. जैसे अंगुलिमाल और बाल्मीकि के जीवन में आया था.

    आज भी ठाकुर जी के पास, ऐसे अनगिनत अंगुलीमॉल हैं, जिन्होंने अपने अपराधी जीवन को, उनके प्रेम और स्नेह भरी दृष्टी पाकर, न केवल अच्छा बनाया, बल्कि वे आज अनेकोनेक व्यक्तियों के मंगल के लिए चल पा रहे हैं.

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