Wednesday, 2 November 2011

एक ताजा गीत -भरे कमण्डल में मंहगाई

चित्र -गूगल से साभार 
भरे कमण्डल में महंगाई
क्या सीखा  
रैदास से भाई ?
भरे कमण्डल में 
महंगाई |

तुम कबीर का 
हाल न पूछे ,
भूत -प्रेत 
बेताल न पूछे ,

भूले तुलसी 
की चौपाई |

जाति -धरम की 
किए  सियासत ,
फिर चुनाव में 
अपनी सांसत ,

हम बकरे 
तुम हुए कसाई |

घर में उड़ती 
धूल न देखा ,
पढ़े न घोटालों 
का लेखा ,

तुलसी चौरे 
पर मुरझाई |

वही पुरानी 
ढपली गाना ,
कैसे भी हो 
सत्ता पाना ,

सोने का मृग 
सीता माई |

धूनी जैसे 
होते चूल्हे ,
हाथ बंधे हैं 
टूटे कूल्हे ,

और पाँव में 
फटी बिवाई |

बहरे कान 
ढकी हैं ऑंखें ,
जिन्दा चिड़िया 
टूटी पाँखें ,

उड़े घोंसले 
आंधी आई |

राजनीति अब 
खेल तमाशा ,
शकुनि और 
शतरंजी पासा ,

धर्मराज सब 
गूंगे भाई |
[एक बड़ी पार्टी के युवराज कल बनारस में संत रविदास जी के मन्दिर में गए थे |देश की बड़ी -बड़ी समस्याओं पर युवराज मौन हैं |काश मूल समस्याओं पर अपना ध्यान खींचते |भाई अब जनता बहुत जागरूक है ]

8 comments:

  1. बहरे कान
    ढकी हैं ऑंखें ,
    जिन्दा चिड़िया
    टूटी पाँखें ,...badhiyaa

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  2. बिल्कुल सटीक चित्रण किया है।

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  3. सटीक चित्रण है पुराने पात्रों को ले कर ... लाजवाब ....

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  4. सुन्दर अभिव्यक्ति है.

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  5. कुछ बदले मिजाज की यथार्थ कविता , पसंद आई , बहुत -2 बधाई जी /

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  6. तुषार जी नमस्कार, सटीक चित्रण बहरे कान------

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  7. अंधे आगे
    क्या रोना है
    बांटो सुख
    सच्चा टोना है

    परहित सरिस
    धर्म नहीं भाई

    आपकी रचनायें लिखने को प्रेरित करतीं हैं...

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