चित्र -गूगल से साभार |
चौक ,मुम्बई और
नहीं भोपाल चाहिए |
हम किसान
बुनकर के वंशज
हमको रोटी -दाल चाहिए |
हथकरघों से
सपने बुनकर
हम कबीर के पद गाएंगे ,
युगों -युगों की
भ्रान्ति तोड़ने
काशी से मगहर जाएंगे ,
हमें एक
सारंगी साधो
झाँझ और करताल चाहिए |
हम किसान हैं
कठिन जिन्दगी
फिर भी हर मौसम में गाते ,
धूप -छाँह से ,
नदी -पहाड़ों से
हैं अपने रिश्ते -नाते ,
सूखे खेत
बरसना मेघों
हमको नहीं अकाल चाहिए |
आप धन्य !
जनता के सेवक
रोज बनाते महल -अटारी .
भेष बदलकर
भाव बदलकर
हमको छलते बारी -बारी ,
परजा के
हिस्से महंगाई
राजा को टकसाल चाहिए |
kaash ek jahan mil pata
ReplyDeletejahan aisa har sapna sach ho jata...
bahut sundar geet...
परजा के
ReplyDeleteहिस्से महंगाई
राजा को टकसाल चाहिए |
बहुत भावपूर्ण गीत
पूजा जी और संगीता जी आप दोनों का बहुत -बहुत आभार |
ReplyDeleteहथकरघों से
ReplyDeleteसपने बुनकर
हम कबीर के पद गाएंगे ,
युगों -युगों की
भ्रान्ति तोड़ने
काशी से मगहर जाएंगे ,
हमें एक
सारंगी साधो
झाँझ और करताल चाहिए |superb song
वाह,
ReplyDeleteसबको सबका जहाँ नहीं मिल पाता..
सुंदर गीत!
ReplyDeleteव्यवस्था के प्रति क्षोभ तो है लेकिन आशावादिता की झंकार स्पष्ट गुंजायमान है गीत में...
सुन्दर भावपूर्ण
ReplyDeleteपरजा के
ReplyDeleteहिस्से महंगाई
राजा को टकसाल चाहिए |
बहुत खूब...
हथकरघों से
ReplyDeleteसपने बुनकर
हम कबीर के पद गाएंगे ,
युगों -युगों की
भ्रान्ति तोड़ने
काशी से मगहर जाएंगे ,
हमें एक
सारंगी साधो
झाँझ और करताल चाहिए |
हम किसान हैं
कठिन जिन्दगी
फिर भी हर मौसम में गाते ,
धूप -छाँह से ,
नदी -पहाड़ों से
हैं अपने रिश्ते -नाते ,
सूखे खेत
बरसना मेघों
हमको नहीं अकाल चाहिए |
Behtareen panktiyan! Aprateem bhaav!
बेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteदीन के दर्द को अभिव्यक्त करती इस कविता का अंत ...राजा को टकसाल चाहिए.. से होता है। जो इसे बेहतरीन कटाक्ष में परिवर्तित कर देता है।
ReplyDelete..मेरी बधाई स्वीकार करें।
परजा के
ReplyDeleteहिस्से महंगाई
राजा को टकसाल चाहिए |
बहुत सुंदर ...
तेरे भाव कुसुम की कीमत सबसे ऊँची और बड़ी !"
ReplyDeleteसूने में प्रतिमा बोल पड़ी !
वाह ...बहुत खूब कहा ।
आज के समय में ऐसा गीत लिखने की कला सिर्फ तुषार की कलम में ही हो सकती है . बहुत बहुत धन्यवाद .
ReplyDeleteहम किसान हैं
ReplyDeleteकठिन जिन्दगी
फिर भी हर मौसम में गाते ,
धूप -छाँह से ,
नदी -पहाड़ों से
हैं अपने रिश्ते -नाते ,
सूखे खेत
बरसना मेघों
हमको नहीं अकाल चाहिए ।
सुंदर कामना व्यक्त करता उत्तम गीत।
सुन्दर शब्द और अद्भुत भाव लिए अप्रतिम रचना ...बधाई
ReplyDeleteनीरज
आप धन्य !
ReplyDeleteजनता के सेवक
रोज बनाते महल -अटारी .
भेष बदलकर
भाव बदलकर
हमको छलते बारी -बारी ,
परजा के
हिस्से महंगाई
राजा को टकसाल चाहिए |
वाह वाह तुषार जी बहुत दिनों के बात एक "झमाझम" गीत पढ़ने को मिला
शुक्रिया और बधाई स्वीकारें
तुषार जी नमस्कार, बहुत सुन्दर लिखा है आप बनाये भवन अटारी ------परजा के हिस्से महंगाई राजा को टकसाल चाहिये । फिर भी इनका पेट नही भरता नेता जो ठ्हरे बांट्ना और राज करना ही नीति बन गैइ है।
ReplyDeleteआज के राजा को तो टकसाल भी कम है...
ReplyDeleteब्लॉग पर आकर हमारा उत्साहवर्धन करने हेतु आप सभी का बहुत -बहुत आभार |
ReplyDeleteतकलीफ देह सच्चाई तो यही है ....
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
भेष बदलकर
ReplyDeleteभाव बदलकर
हमको छलते बारी -बारी ,excellent.
आप धन्य !
ReplyDeleteजनता के सेवक
रोज बनाते महल -अटारी .
भेष बदलकर
भाव बदलकर
हमको छलते बारी -बारी ,
परजा के
हिस्से महंगाई
राजा को टकसाल चाहिए |
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गीतों में यही बहरहाल चाहिये .....
अच्छा गीत है