Thursday, 8 September 2011

एक गीत -आज़ादी है मगर

चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 
रातें होती 
कोसोवो सी ,दिन 
लगते हैं वियतनाम से |
डर लगता है 
अब प्रणाम से |

हवा बह रही 
अंगारे सी 
दैत्य सरीखे हँसते टापू ,
सड़कों पर 
जुलूस निकले हैं 
चौराहों पर खुलते चाकू ,
धमकी भरे पत्र 
आते हैं कुछ 
नामों से कुछ अनाम से |

फूल सरीखे बच्चे 
अपनी कालोनी में 
अब डरते हैं ,
गुर्दा ,धमनी 
जिगर ,आँख का 
अपराधी सौदा करते हैं ,
चश्मदीद की 
आँखों में भय 
इन्हें कहाँ डर है निज़ाम से |

महिलाएं 
अब कहाँ सुरक्षित 
घर में हों या हों दफ़्तर में ,
बम जब  चाहे 
फट जाते हैं कोर्ट -
कचहरी अप्पूघर में ,
हर घटना पर 
गिर जाता है 
तंत्र सुरक्षा का धड़ाम से |

पंडित बैठे 
सगुन बाँचते क्या
बाज़ार ,हाट क्या मेले ,
बंजर खेत 
डोलते करइत 
आम आदमी निपट अकेले ,
आज़ादी है 
मगर व्यवस्था की 
निगाह में हम गुलाम से |
चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 

[यह गीत जनवरी 2011में अमर उजाला के साहित्यिक परिशिष्ट में प्रकाशित हो चुका है ]

9 comments:

  1. मन की पीड़ा बतलाती पंक्तियाँ।

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  2. सुन्दर गीत... मर्मस्पर्शी..

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  3. आज़ादी है
    मगर व्यवस्था की
    निगाह में हम गुलाम से .

    एक एक शब्द सटीक .बहुत सुन्दर गीत ,वाह.

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  4. बहुत दुखद परिस्थिति हो गयी है........

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||

    बधाई |

    और बधाई ||

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  6. मन की व्यथा की बहुत सार्थक अभिव्यक्ति।

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  7. मर्मस्पर्शी शाब्दिक चित्रण...

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  8. विचित्र किन्तु सत्य - आज की स्थिति को बयां करता गीत धन्यवाद |

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  9. पंडित बैठे
    सगुन बाँचते क्या
    बाज़ार ,हाट क्या मेले ,
    बंजर खेत
    डोलते करइत
    आम आदमी निपट अकेले ,
    आज़ादी है
    मगर व्यवस्था की
    निगाह में हम गुलाम से |

    अंतर्मन को उद्देलित करती पंक्तियाँ.....

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