चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार |
कोसोवो सी ,दिन
लगते हैं वियतनाम से |
डर लगता है
अब प्रणाम से |
हवा बह रही
अंगारे सी
दैत्य सरीखे हँसते टापू ,
सड़कों पर
जुलूस निकले हैं
चौराहों पर खुलते चाकू ,
धमकी भरे पत्र
आते हैं कुछ
नामों से कुछ अनाम से |
फूल सरीखे बच्चे
अपनी कालोनी में
अब डरते हैं ,
गुर्दा ,धमनी
जिगर ,आँख का
अपराधी सौदा करते हैं ,
चश्मदीद की
आँखों में भय
इन्हें कहाँ डर है निज़ाम से |
महिलाएं
अब कहाँ सुरक्षित
घर में हों या हों दफ़्तर में ,
बम जब चाहे
फट जाते हैं कोर्ट -
कचहरी अप्पूघर में ,
हर घटना पर
गिर जाता है
तंत्र सुरक्षा का धड़ाम से |
पंडित बैठे
सगुन बाँचते क्या
बाज़ार ,हाट क्या मेले ,
बंजर खेत
डोलते करइत
आम आदमी निपट अकेले ,
आज़ादी है
मगर व्यवस्था की
निगाह में हम गुलाम से |
निगाह में हम गुलाम से |
[यह गीत जनवरी 2011में अमर उजाला के साहित्यिक परिशिष्ट में प्रकाशित हो चुका है ]
मन की पीड़ा बतलाती पंक्तियाँ।
ReplyDeleteसुन्दर गीत... मर्मस्पर्शी..
ReplyDeleteआज़ादी है
ReplyDeleteमगर व्यवस्था की
निगाह में हम गुलाम से .
एक एक शब्द सटीक .बहुत सुन्दर गीत ,वाह.
बहुत दुखद परिस्थिति हो गयी है........
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
ReplyDeleteबधाई |
और बधाई ||
मन की व्यथा की बहुत सार्थक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी शाब्दिक चित्रण...
ReplyDeleteविचित्र किन्तु सत्य - आज की स्थिति को बयां करता गीत धन्यवाद |
ReplyDeleteपंडित बैठे
ReplyDeleteसगुन बाँचते क्या
बाज़ार ,हाट क्या मेले ,
बंजर खेत
डोलते करइत
आम आदमी निपट अकेले ,
आज़ादी है
मगर व्यवस्था की
निगाह में हम गुलाम से |
अंतर्मन को उद्देलित करती पंक्तियाँ.....