चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार |
नजूमी बाढ़ का मंजर लगे खेतों को दिखलाने
नमक से अब भी सूखी रोटियां मज़दूर खाते हैं
भले ही कृश्न चंदर ने लिखे हों इनपे अफ़साने
रईसी देखना है मुल्क की तो क्यों भटकते हो
किसी रहबर का घर देखो या फिर मंदिर के तहखाने
मुसाफ़िर छोड़ दो चलना ये रस्ते हैं तबाही के
यहाँ हर मोड़ पे मिलते हैं साकी और मयखाने
चलो जंगल से पूछें या पढ़ें मौसम की ख़ामोशी
परिंदे उड़ तो सकते हैं मगर गाते नहीं गाने
ये वो बस्ती है जिसमें सूर्य की किरणें नहीं पहुंचीं
करेंगें जानकर भी क्या ये सूरज- चाँद के माने
खवातीनों के हिस्से कम नहीं दुश्वारियां अब भी
पलंग पर बैठने का हक नहीं है इनको सिरहाने
खवातीनों के हिस्से कम नहीं दुश्वारियां अब भी
पलंग पर बैठने का हक नहीं है इनको सिरहाने
सफ़र में साथ चलकर हो गए हम और भी तन्हा
ग़मज़दा करती ग़ज़ल ----संवाद बड़ा ही मारू बन पडा है !
ReplyDeleteरईसी देखना है मुल्क की तो क्यों भटकते हो
ReplyDeleteकिसी रहबर का घर देखो या फिर मंदिर के तहखाने
wahhhhh!!!!!!! bahut dinon baad achee gazal padhne ko milee..samajik isthitiyon ka parichay karati, madhur aur bhavnatamak prastuti ke lie aapka abhar.
भाई अरविन्द मिश्र जी और डॉ० सुशीला जी आपका आभार
ReplyDeleteरईसी देखना है मुल्क की तो क्यों भटकते हो
ReplyDeleteकिसी रहबर का घर देखो या फिर मंदिर के तहखाने
क्या बात है सर ! मुखरता इतनी की मुखर हो जाये मौन सहजता इतनी की, असहज हो जाये चैन,खुशनशिबी है की हम कह पा रहे हैं.. / बहुत अछे शेर व जहीन अल्फाज...शुक्रिया जी /
बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
ReplyDeleteअभी भी सिर्फ़ सूखी रोटियां मज़दूर खाते हैं
ReplyDeleteभले ही कृश्न चंदर ने लिखे हों इनपे अफ़साने
तुषार भाई आपकी हर ग़ज़ल अभिभूत कर देती है। मक्खन की तरह मुलायम शेर में जो वज़्न होता है वह सीधे दिल पर वार करता है। हर शे’र उम्दा।
चलो जंगल से पूछें या पढ़ें मौसम की ख़ामोशी
परिंदे उड़ तो सकते हैं मगर गाते नहीं गाने
अभी भी सिर्फ़ सूखी रोटियां मज़दूर खाते हैं
ReplyDeleteभले ही कृश्न चंदर ने लिखे हों इनपे अफ़साने
तुषार भाई आपकी हर ग़ज़ल अभिभूत कर देती है। मक्खन की तरह मुलायम शेर में जो वज़्न होता है वह सीधे दिल पर वार करता है। हर शे’र उम्दा।
चलो जंगल से पूछें या पढ़ें मौसम की ख़ामोशी
परिंदे उड़ तो सकते हैं मगर गाते नहीं गाने
कभी कभी ये भीड़ न भाये,
ReplyDeleteभीड़ रहे जब, रहूँ अकेला।
रईसी देखना है मुल्क की तो क्यों भटकते हो
ReplyDeleteकिसी रहबर का घर देखो या फिर मंदिर के तहखाने
बहुत खूबसूरत गज़ल ..
ये वो बस्ती है जिसमें सूर्य की किरणें नहीं पहुंचीं
ReplyDeleteकरेंगें जानकर भी क्या ये सूरज- चाँद के माने
Bahut Badhiya Gazal...
नमक से अब भी सूखी रोटियां मज़दूर खाते हैं
ReplyDeleteभले ही कृश्न चंदर ने लिखे हों इनपे अफ़साने
kamaal hai
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
ReplyDeleteरईसी देखना है मुल्क की तो क्यों भटकते हो
ReplyDeleteकिसी रहबर का घर देखो या फिर मंदिर के तहखाने ...
Great couplets Tushaar ji . Badhaii.
.
नमक से अब भी सूखी रोटियां मज़दूर खाते हैं
ReplyDeleteभले ही कृश्न चंदर ने लिखे हों इनपे अफ़साने
वाह वाह क्या बात निकाली दिल खुश हो गया
सुंदर,भाव पूर्ण रचना...
ReplyDeleteबहुत खूब...
ReplyDeleteबेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल..........
ReplyDeleteरईसी देखना है मुल्क की तो क्यों भटकते हो
ReplyDeleteकिसी रहबर का घर देखो या फिर मंदिर के तहखाने
is sher ne to kamal kar diya pr gazal puri hi sunder hai .
badhai
rachana
चलो जंगल से पूछें या पढ़ें मौसम की ख़ामोशी
ReplyDeleteपरिंदे उड़ तो सकते हैं मगर गाते नहीं गाने
रईसी देखना है मुल्क की तो क्यों भटकते हो
किसी रहबर का घर देखो या फिर मंदिर के तहखाने
sabhi sher bahut badhiya
चलो जंगल से पूछें या पढ़ें मौसम की ख़ामोशी
ReplyDeleteपरिंदे उड़ तो सकते हैं मगर गाते नहीं गाने ..
बहुत खूब ... हर शेर जैसे कुछ हकीकत बयान कर रहा है ... लाजवाब ..
एक अच्छी गज़ल पढ़वाने के लिए शुक्रिया.
ReplyDeleteएक अच्छी गज़ल पढ़वाने के लिए शुक्रिया.
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