Wednesday, 18 May 2011

एक नवगीत -संध्याओं के हाथ जले हैं

चित्र -गूगल से साभार 
पंछी पेड़ों से 
दहशत में 
उड़े मचाते शोर |
जंगल के 
सीने पर चढ़कर 
बैठा आदमखोर |

संध्याओं के 
हाथ जले हैं 
पँख तितलियों के ,
कितनी तेज 
धार वाले नाख़ून 
उँगलियों के ,
फंदा डाल 
गले में लटकी हुई 
सुनहरी भोर |

इतना सब कुछ हुआ 
मगर ये दिन भी 
कहाँ अछूता ,
फर्जी 
हर मुठभेंड़ कहाँ तक 
लिखता इब्नबतूता ,
फिर बहेलिये 
खींच रहे हैं 
नये जाल की डोर |

सपनीली 
आँखों में भी हैं 
सपने डरे हुए ,
तपती हुई 
रेत में सौ -सौ 
चीतल मरे हुए ,
जलविहीन 
मेघों के सम्मुख 
कत्थक करते मोर |
चित्र -गूगल से साभार 
[मेरा यह गीत जनसत्ता वार्षिकांक में प्रकाशित हो चुका है ]

6 comments:

  1. संध्याओं के
    हाथ जले हैं
    पँख तितलियों के ,
    कितनी तेज
    धार वाले नाख़ून
    उँगलियों के ,
    फंदा डाल
    गले में लटकी हुई
    सुनहरी भोर |
    ... dare hue sapne , gahan abhivyakti

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  2. यही आज की सच्चाई है. सुन्दर प्रस्तुति.

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  3. सपनीली
    आँखों में भी हैं
    सपने डरे हुए ,
    तपती हुई
    रेत में सौ -सौ
    चीतल मरे हुए ,
    जलविहीन
    मेघों के सम्मुख
    कत्थक करते मोर

    कालखण्ड भले ही बदल रहा हो किन्तु परिस्थितियां तो विकट से विकटतम की दिशा में ही जा रही हैं ।

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  4. गहन अभिव्यक्ति......आभार !

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  5. सुन्दर लिखा है ...आपको ढेरों बधाई व शुभकामना. ...

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