चित्र -गूगल से साभार |
चलो फिर
गुलमोहरों के होंठ पर
ये दिन सजाएँ |
आधुनिक
संदर्भ वाले
कुछ पुराने गीत गाएं |
साँझ -सुबहों के
गए माने
दिन ढले दफ़्तर थकानों में ,
चहचहाते
अब नहीं पंछी
धुआं होते आसमानों में ,
हम उदासी
ओढ़कर बैठे चलो
मिलजुलकर टिफिन खाएं |
हम कहाँ अब
धूल पोंछे आइनों सा
दिख रहे हैं ,
आवरण ,आमुख
किताबों में कहाँ
सच लिख रहे हैं ,
चलो घर में
कैद होकर
पढ़ें मंटो की कथाएँ |
घर -गिरस्ती में
हुईं धूमिल
हुईं धूमिल
मौसमों के रंग वाली भाभियाँ ,
जब कभी हम
बन्द तालों से हुए
यही होतीं थी हमारी चाभियाँ ,
चलो फिर
रूठी हुई इन
भाभियों को हम मनाएं |
दो
हम आंधी में उड़ते पत्ते
सबके हाथ
बराबर रोटी
बांटो मेरे भाई |
इसी देश में
कालाहांडी ,बस्तर
और भिलाई |
कुछ के हिस्से
आंच धूप की
कुछ के सिर पर छाता ,
दिल्ली और
अमेठी से बस
युवराजों का नाता ,
फूलों की
घाटी हुजूर को
हमको मिली तराई |
हम आंधी में
उड़ते पत्ते
शाखों पर कब लौटे ,
बच्चों के
सिरहाने से
गायब होते कजरौटे ,
दबे पाँव से
बिल्ली भागी
पीकर दूध ,मलाई |
ठूँठ पेड़ पर
बैठे पंछी
हाँफ रहे हैं भूखे ,
बिना फसल के
खेतों में भी
काबिज हुए बिजूखे ,
अँधेरे में
ढूंढ रहे हम
ढिबरी ,दियासलाई |
चित्र -गूगल से साभार |
बहुत सुन्दर गीत ... सादर
ReplyDeleteवाह!!! दोनों गीत लाजवाब|
ReplyDeleteचलो घर में
कैद होकर
पढ़ें मंटो की कथाएँ
कुछ के हिस्से
आंच धूप की
कुछ के हिस्से छाता ,
दिल्ली और
अमेठी से ही
युवराजों का नाता ,
फूलों की
घाटी हुजूर की
हमको मिली तराई |
क्या बात है| जबरदस्त ...मज़ा आ गया| तुषार जी बहुत बहुत बधाई|
दोनों ही गीत बहुत सुन्दर ...
ReplyDeleteअलग अलग विषयों को ले कर की गयी दोनों रचनाएँ अच्छी लगीं
हो रहीं धूमिल
ReplyDeleteगिरस्ती में
मौसमों के रंग वाली भाभियाँ ,
जब कभी हम
बन्द तालों से हुए
यही होतीं थी हमारी चाभियाँ ,
चलो फिर
रूठी हुई इन
भाभियों को हम मनाएं |..
...ये कोमल अहसास अब कहाँ हैं?
दोनों ही रचनाएँ बहुत सुन्दर और प्रवाहमयी और यथार्थ के बहुत करीब..
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteइन नवगीतों की संवेदना और शिल्पगत सौंदर्य मन को भाव विह्वल कर गए हैं।
ReplyDelete• इस ऊबड़-खाबड़ गद्य कविता समय में आपने अपनी भाषा का माधुर्य और गीतात्मकता को बचाए रखा है।
• इन नवगीतों में बाज़ारवाद और वैश्वीकरण के इस दौर में अधुनिकता और प्रगतिशीलता की नकल और चकाचौंध में किस तरह हमारी ज़िन्दगी घुट रही है प्रभावित हो रही है, उसे आपने दक्षता के साथ रेखांकित किया है। बिल्कुल नए सोच और नए सवालों के साथ समाज की मौज़ूदा जटिलता को उजागर कर आपने सोचने पर विवश कर दिया है।
इतने सुन्दर गीत अब भी लिखे जाते हैं यह देख प्रेरित हो रहा हूँ... नए संबर्भों को लेकर भी सुन्दर नवगीत रची गई है...
ReplyDeleteBeautiful navgeet. thanks.
ReplyDeleteहम आंधी में
ReplyDeleteउड़ते पत्ते
शाखों पर कब लौटे ,
बच्चों के
सिरहाने से
गायब होते कजरौटे ,
दबे पाँव से
बिल्ली भागी
पीकर दूध ,मलाई |
दोनों ही नवगीत बहुत सुंदर....
हम आंधी में
ReplyDeleteउड़ते पत्ते
शाखों पर कब लौटे ,
बच्चों के
सिरहाने से
गायब होते कजरौटे
दोनों रचनाएँ अच्छी लगीं.....
दोनों नवगीत ज़बरदस्त हैं.
ReplyDeleteहम उदासी
ओढ़कर बैठे चलो
मिलजुलकर टिफिन खाएं |
उक्त पंक्तियों में बड़ा नयापन है.
बहुत ही सुंदर हैं दोनों नवगीत, कजरौटे जैसे शब्द चार चाँद लगा रहे हैं इसमें। बधाई स्वीकार करें।
ReplyDeleteदोनों ही रचनाएँ बहुत अच्छी लगी । आज के वक्त पर अच्छा कटाक्ष !
ReplyDeleteचलो घर में
ReplyDeleteकैद होकर
पढ़ें मंटो की कथाएँ |
कुछ के हिस्से
आंच धूप की
कुछ के हिस्से छाता ,
दिल्ली और
अमेठी से ही
युवराजों का नाता ,
फूलों की
घाटी हुजूर की
हमको मिली तराई |
अँधेरे में
ढूंढ रहे हम
ढिबरी ,दियासलाई |
are waah waah waah
zindaabad
dil khush kar diya tushar ji
jabardast
आप सभी शुभचिंतकों का दिल से आभार मेरे गीत आप को मेरे गीत पसंद आये इससे मेरे लेखन को सम्बल मिलेगा |धन्यवाद
ReplyDeleteदोनों रचनाएँ बहुत ही सुन्दर है! लाजवाब और उम्दा प्रस्तुती!
ReplyDeleteumda geet...!
ReplyDeleteहम कहाँ अब
ReplyDeleteधूल पोंछे आइनों सा
दिख रहे हैं ,
आवरण ,आमुख
किताबों में कहाँ
सच लिख रहे हैं ,
चलो घर में
कैद होकर
पढ़ें मंटो की कथाएँ ...
बहुत खूब ... दोनो ही लाजवाब और मंटो को पढ़ना तो कमाल ...
नयी सोच
ReplyDeleteनए आयाम
सामाजिक परिवेश और परिस्थितियों पर
कड़ी नज़र ....
दोनों गीत बहुत प्रभावशाली हैं
उत्साहवर्द्धन के लिए धन्यवाद .
कुछ के हिस्से
ReplyDeleteआंच धूप की
कुछ के हिस्से छाता ,
दिल्ली और
अमेठी से ही
युवराजों का नाता ,
फूलों की
घाटी हुजूर की
हमको मिली तराई |
lajavab
Blogger वीना said...
हम आंधी में
उड़ते पत्ते
शाखों पर कब लौटे ,
बच्चों के
सिरहाने से
गायब होते कजरौटे ,
दबे पाँव से
बिल्ली भागी
पीकर दूध ,मलाई |
kya kahen nih shbad hain
rachana
आपकी उत्साह भरी टिप्पणी और हौसला अफजाही के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
ReplyDeleteबच्चों ने ई- मेल किया है
ReplyDeleteपहुंच गया होगा ,
नाव चलानी है कागज की
जल बरसाओ ना |
नवीन प्रतीकों और रोचक बिम्बों का सुंदर प्रयोग।
भाई मनोज जी आपने भूल से योगेन्द्रजी के गीत पढ़कर मेरे गीत में कमेंट्स कर दिया है |यह कमेंट्स ऊपर की पोस्ट में होना चाहिए था |आभार
ReplyDeleteभाई जय कृष्ण राय तुषार जी को पढ़ना सदैव ही एक सुखद अनुभूति देता है| आप के नवगीतों के तो हम दीवाने हैं भाई|
ReplyDeleteसीधे शब्दों में अपनी बात कहने का कायल कर दिया..
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