चित्र साभार गूगल |
एक गीत -बंजारन बाँसुरी बजाना
मद्धम सुर हो या हो पंचम
बंजारन बाँसुरी बजाती जा.
महलों में गीत नहीं गाना
तू पठार, बस्ती में गाती जा.
मौसम को दोष नहीं देना
वन फूलों जैसा ही खिलना,
हँसकर के तितली को छूना
पात भरे पेड़ों से मिलना.
थकी हुई पर्वत की घाटी
श्वेत परी नेह से बुलाती जा.
कत्थक मुद्राएँ, गन्धर्व नहीं
नौटंकी, लोककला हाशिए,
उज्जयिनी नवरत्नो से विहीन
शब्द, अर्थ भूलते दूभाषिए,
गंगा तो निर्गुण भी सुनती है
एक दिया लहर पर जलाती जा.
नीलकमल झीलों में मुरझाए
लहरों पर जलकुम्भी इतराए,
रिश्तों से रीत गया आँगन
बरसों से दरपन धुंधलाये,
हाथों से मेघों को बीनकर
छत पर कुछ चाँदनी सजाती जा.
कवि जयकृष्ण राय तुषार
बहुत सुंदर पंक्तियां, दिल की गहराई तक उतरती बढ़िया गीत।
ReplyDeleteआपका हृदय से आभार. सादर अभिवादन
Deleteवाह! बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
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