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चित्र -गूगल से साभार |
एक गीत -
हरे वन की चाह में
हरे वन की
चाह में फिर
पंख चिड़ियों के जले हैं |
यहाँ ऋतुएं
हैं तिलस्मी
और मौसम दोगले हैं |
प्यास होंठों पर
सजाए हम
नदी से लौट आए ,
कौन है ये
आसमां में
धूम्र के बादल सजाए ,
हो गया
जनतंत्र बहरा
या कि हम सब तोतले हैं |
हम पठारों पर
बसे हैं
फूल इन पर क्या खिलेंगे ,
हर कदम पर
हमें कुछ
कांटे बबूलों के मिलेंगे ,
हम सुरंगों
में घिरे हैं
भले मीलों तक चले हैं |
हम सुरंगों
में घिरे हैं
भले मीलों तक चले हैं |
हम हँसे तो
इस व्यवस्था ने
हमारे होंठ काटे ,
रो दिए तो
धर्मगुरुओं ने
हमारे रुदन बांटे ,
हमें रहने दो
महज इन्सान