कवि -कैलाश गौतम समय -[08-01-1944 से 09-12-2006] |
कल से
डोरे डाल रहा है
फागुन बीच सिवान में |
रहना मुश्किल हो जाएगा
प्यारे बंद मकान में |
भीतर से
खिड़कियाँ खुलेंगी
बौर आम के महकेंगे ,
आँच पलाशों पर आएगी
सुलगेंगे कुछ दहकेंगे ,
घर का महुआ रंग लाएगा
चूना जैसे पान में |
फिर अधखुली पसलियों की
गुदगुदी धूप में बोलेगी ,
पकी फसल सी लदी ठिठोली
गली -गली फिर डोलेगी ,
कोहबर की जब बातें होंगी
ऊँगली दोनों कान में |
रात गए
पुरवा के झोंके
सौ आरोप लगायेंगे ,
सारस जोड़े
ताल किनारे
लेकर नाम बुलाएंगे ,
मन -मन भर के
पाँव पड़ेंगे
घर -आँगन दालान में |
[कैलाश गौतम जी का परिचय हमारे ब्लॉग की पुरानी पोस्ट में दिया गया है ]
ग्रामीण आत्मीय परिवेश की महक समेटे शब्दों की लड़ियाँ..
ReplyDeleteकैलाश जी को रूबरू सुनने का आनंद पाया है हमने, उनके कुछ फागुनी दोहे थे-
ReplyDeleteलगे फूंकने आम के बौर गुलाबी शंख
कैसे रहें किताब में हम मयूर के पंख. आदि.
भीतर से
ReplyDeleteखिड़कियाँ खुलेंगी
बौर आम के महकेंगे ,
आँच पलाशों पर आएगी
सुलगेंगे कुछ दहकेंगे ,
घर का महुआ रंग लाएगा
चूना जैसे पान में |
बहुत सुन्दर ..
आपका शुक्रिया ,सुन्दर रचना सांझा करने के लिए.
सुन्दर, बहुत ही बेहतरीन रचना है.....
ReplyDeleteइस रसभरे बासंती गीत के लिए बार-बार वाह...!
ReplyDeleteसूक्ष्म संकेतों के धनी कालजयी कवि हैं कैलाश गौतम -आभार यह रचना पढवाने के लिए !
ReplyDeleteहार्दिक आभार सुन्दर गीत पढवाने के लिए..
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