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चित्र -गूगल से साभार |
बीत रहे हैं
दिन सतरंगी
केवल ख़्वाबों में |
चलो मुश्किलों
का हल ढूँढें
खुली किताबों में |
इन्हीं किताबों में
जन- गण -मन
तुलसी की चौपाई ,
इनमें ग़ालिब -
मीर ,निराला
रहते हैं परसाई ,
इनके भीतर
जो खुशबू वो
नहीं गुलाबों में |
इसमें कई
विधा के गेंदें -
गुड़हल खिलते हैं ,
बंजर मन
को इच्छाओं के
मौसम मिलते हैं |
लैम्पपोस्ट में
पढ़िए या फिर
दफ़्तर, ढाबों में |
तनहाई से
हमें किताबें
दूर भगाती हैं ,
ज्ञान अगर
खुद सो जाए
तो उसे जगाती हैं ,
इनमें जो
परवाज़ ,कहाँ
होती सुर्खाबों में ?
इनको पढ़कर
कई घराने
गीत सुनाते हैं ,
इनकी जिल्दों में
जीवन के रंग
समाते हैं ,
ये न्याय सदन ,
संसद के सारे
[इलाहाबाद में विगत दिनों पुस्तक मेले में भ्रमण के दौरान मन में यह विचार आया कि क्यों न पुस्तकों के संदर्भ में कोई कविता /गीत लिखा जाए |यह गीत इसी विचार की देन है |पुस्तकें वास्तव में हमें रास्ता दिखाती हैं ,ये अन्धेरे में जलती हुई मशाल होती हैं |हमारी सही मायने में दोस्त होती हैं |पुस्तकें वक्त का आईना होती हैं |हम कवि /लेखक इनके बिना अपने अस्तित्व की कल्पना ही नहीं कर सकते हैं |]