चित्र -गूगल से साभार |
एक पेमगीत -कुछ फूलों के कुछ मौसम के
कुछ फूलों के
कुछ मौसम के
रंग नहीं अनगिन |
तुम्हे देखकर
बदला करतीं
उपमाएं पल -छिन |
एक सुवासित
गन्ध हवा में
छूकर तुमको आती ,
राग बदलकर
रंग बदलकर
प्रकृति सहचरी गाती ,
तुम हो तो
मन्दिर की सुबहें
संध्याएँ ,शुभ दिन |
स्वप्न कथाओं में
हम कितने
खजुराहो गढ़ते ,
अनपढ़ ही
रह गए तुम्हारे
शब्द भाव पढ़ते ,
तुम तो धवल
कंवल सी जल में
हम होते पुरइन |
स्वप्न कथाओं में
हम कितने
खजुराहो गढ़ते ,
अनपढ़ ही
रह गए तुम्हारे
शब्द भाव पढ़ते ,
तुम तो धवल
कंवल सी जल में
हम होते पुरइन |
लहरों पर
जलते दीपों की
लौ तेरी ऑंखें ,
तुम्हें देख
शरमाती
फूलों की कोमल शाखें ,
तुम्हें उर्वशी ,
रम्भा लिख दूँ
बहुत सुंदर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-05-2018) को "उच्चारण ही बनेंगे अब वेदों की ऋचाएँ" (चर्चा अंक-2962) (चर्चा अंक-1956) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक