चित्र -गूगल से साभार |
एक गीत -
झीलों की भाप से निकलते हैं
गाद भरी
झीलों की
भाप से निकलते हैं |
ऐसे ही
मेघ हमें
बारिश में छलते हैं |
खेतों को
प्यास लगी
शहरों में पानी है ,
सिंहासन
पर बेसुध
राजा या रानी है ,
फूलों के
मौसम में
फूल नहीं खिलते हैं |
बांसों के
झुरमुट में
चिड़ियों के गीत नहीं ,
कोहबर
की छाप लिए
मिटटी की भीत नहीं ,
मुश्किल में
हम अपनी
खुद -ब -खुद उबलते हैं |
उत्सव के
रंगों में
लोकरंग फीका है ,
गुड़िया के
माथ नहीं
काजल का टीका है ,
कोई
संवाद नहीं
साथ हम टहलते हैं |
बार -बार
एक नदी
धारा को मोड़ रही ,
हिरणों की
टोली फिर
जंगल को छोड़ रही ,
मंजिल का
पता नहीं
राह सब बदलते हैं |
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 11 सितम्बर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (11.09.2015) को "सिर्फ कथनी ही नही, करनी भी "(चर्चा अंक-2095) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteखेतों को प्यास लगी शहरों में पानी है ,
ReplyDeleteसिंहासन पर बेसुध राजा या रानी है ,
फूलों के मौसम में फूल नहीं खिलते हैं |
....... बहुत सुन्दर गीत
sundar geet hai tushar ji hardik badhai
Deleteबढ़िया
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteआप सभी मित्रों का हार्दिक आभार
ReplyDeletesundar geet ...
ReplyDeleteबांसों के झुरमुट में चिड़ियों के गीत नहीं ,
ReplyDeleteकोहबर की छाप लिए मिटटी की भीत नहीं ,
मुश्किल में हम अपनी खुद -ब -खुद उबलते हैं |
- तभी तो सहजता और माधुर्य जीवन से ग़ायब हो गए हैं.
बहुत सुंदर
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