Friday, 13 April 2012

एक गीत -शहरों के नामपट्ट बदले

चित्र -गूगल से साभार
एक गीत -शहरों के नामपट्ट बदले 
चाल -चलन 
जैसे  थे वैसे 
शहरों के नामपट्ट बदले |
भेदभाव 
बाँट रही सुबहें 
कोशिश हो सूर्य नया निकले |

दमघोंटू 
शासन है 
जनता के हिस्से ,
विज्ञापनजीवी 
अख़बारों के 
किस्से ,
हैं कोयला 
खदानों के 
सब दावे उजले |

मीरा के 
होठों पर 
जहर भरी प्याली ,
है औरत के 
हिस्से का 
आसमान खाली ,
बस आंकड़े 
तरक्की के 
कागज पर उछले |

लूटमार 
हत्याएँ 
घपले -घोटाले ,
हम केवल 
मतदाता 
वोट गए डाले ,
हैं गंगाजल 
भरे हुए 
पात्र सभी गँदले |

आंधी का 
मौसम है 
फूलों में गंध कहाँ ,
कबिरा की 
बानी में 
अब वैसा  छन्द कहाँ ,
शहर 
हुए चांदी के 
गाँव रहे  तसले |
चित्र -गूगल से साभार 

11 comments:

  1. समकालीन व्यथा का गीत !

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  2. दुकान तो ऊँची कर ली...पकवान तो फीके ही रहे...

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  3. आपके गीतकार पक्ष की विशेषता है कि समकालीन परिस्थितियों को ऐसे सुन्दर तरीके से प्रस्तुत करते हैं कि वह दीर्घ कालीन हो जाती है

    इस गीत के साथ भी कुछ ऐसा ही है

    बधाई स्वीकारें

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  4. प्रासंगिक भाव है.... बेहद सुंदर

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  5. bahut achcha geet hai, badhai ho.

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  6. भेदभाव
    बाँट रही सुबहें
    कोशिश हो सूर्य नया निकले |

    बहुत बढ़िया नवगीत

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  7. नये उजाले की याद सताने लगी है..

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  8. This comment has been removed by the author.

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  9. आज की स्तिथियों पर अच्छा कमेन्ट है

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  10. .

    जवाब नहीं आपका !

    ख़ूबसूरत नवगीत हमेशा की तरह्…

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