चित्र -गूगल से साभार |
एक गीत -शहरों के नामपट्ट बदले
चाल -चलन
जैसे थे वैसे
शहरों के नामपट्ट बदले |
भेदभाव
बाँट रही सुबहें
कोशिश हो सूर्य नया निकले |
दमघोंटू
शासन है
जनता के हिस्से ,
विज्ञापनजीवी
अख़बारों के
किस्से ,
हैं कोयला
खदानों के
सब दावे उजले |
मीरा के
होठों पर
जहर भरी प्याली ,
है औरत के
हिस्से का
आसमान खाली ,
बस आंकड़े
तरक्की के
कागज पर उछले |
लूटमार
हत्याएँ
घपले -घोटाले ,
हम केवल
मतदाता
वोट गए डाले ,
हैं गंगाजल
भरे हुए
पात्र सभी गँदले |
आंधी का
मौसम है
फूलों में गंध कहाँ ,
कबिरा की
बानी में
अब वैसा छन्द कहाँ ,
शहर
हुए चांदी के
समकालीन व्यथा का गीत !
ReplyDeleteदुकान तो ऊँची कर ली...पकवान तो फीके ही रहे...
ReplyDeleteआपके गीतकार पक्ष की विशेषता है कि समकालीन परिस्थितियों को ऐसे सुन्दर तरीके से प्रस्तुत करते हैं कि वह दीर्घ कालीन हो जाती है
ReplyDeleteइस गीत के साथ भी कुछ ऐसा ही है
बधाई स्वीकारें
प्रासंगिक भाव है.... बेहद सुंदर
ReplyDeletebahut achcha geet hai, badhai ho.
ReplyDeleteभेदभाव
ReplyDeleteबाँट रही सुबहें
कोशिश हो सूर्य नया निकले |
बहुत बढ़िया नवगीत
नये उजाले की याद सताने लगी है..
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआज की स्तिथियों पर अच्छा कमेन्ट है
ReplyDelete.
ReplyDeleteजवाब नहीं आपका !
ख़ूबसूरत नवगीत हमेशा की तरह्…
:)
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