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चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार |
पहले जैसी
नहीं गाँव की
रामकहानी है |
जिसका है
सरपंच उसी का
दाना -पानी है |
परती खेत
कहाँ हँसते अब
पौधे धानों के ,
झील -ताल
सब बंटे हाथ
मुखिया -परधानों के ,
चिरई -चुनमुन नहीं
मुंडेरों पर
हैरानी है |
आसमान से झुंड
गुम हुए
उड़ती चीलों के ,
उत्सवजीवी रंग
नहीं अब रहे
कबीलों के ,
मुरझाये
फूलों पर बैठी
तितली रानी है |
मंदिर में
पूजा होती अब
फ़िल्मी गानों से ,
राजपुरोहित से
टूटे रिश्ते
यजमानों के ,
शहरों जैसे
रंग -ढंग
अब बोली -बानी है |
रोजगार
गारंटी की
यह बातें करता है ,
पीढ़ी दर
पीढ़ी किसान बस
कर्जा भरता है ,
कागज पर
सदभाव`
धरातल पर शैतानी है |
दो
आग में लिपटे हुए ये वन चिनारों के
आग में लिपटे हुए ये वन चिनारों के
आग में
लिपटे हुए
ये वन चिनारों के |
गीत अब
कैसे लिखेगें
हम बहारों के |
खेत परती
बीडियाँ
सुलगा रहा कोई ,
गीत बुन्देली
हवा में
गा रहा कोई ,
सूखती
नदियाँ ,फटे सीने
कछारों के |
एक चिट्ठी
माँ !तेरी
कल शाम आयी है ,
और यह
चिट्ठी बहुत ही
काम आयी है ,
शुष्क चेहरे पर
पड़े छींटे
फुहारों के |
यह शहर
महँगा ,यहाँ है
भूख -बेकारी ,
हर कदम पर
हम हरे हैं पेड़
ये आरी ,
पाँव के
नीचे दबे हम
घुड़सवारों के |
[मेरे दोनों गीत कोलकाता से प्रकाशित जनसत्ता दीपावली वार्षिकांक २०१० में प्रकाशित हैं ]