चित्र -गूगल से साभार |
एक गीत -थर्राती स्वप्निल संध्याएँ
लहू -लहू
अख़बार सुबह का
थर्राती स्वप्निल संध्याएँ |
शहर गए
बच्चों के खातिर
दुआ मांगती हैं माताएं |
राजपथों पर
आदमखोरों के
पंजों की छाप देखिए ,
हर घटना पर
वही पुराना जुमला
साहब आप देखिए |
एक नहीं अब
कई दुःशासन क्या
होगा कल आप बताएं ?
कला -संस्कृति
भूल गये हैं
दरबारों के नए सभासद ,
सूर्य -राहू के
पंजे में है आने -
वाला हर दिन त्रासद ,
रुमालें थक गयीं
पोंछते अब ये
आंसू कहाँ छिपाएं |
लिखने बैठा
प्रेम गीत तो
शोक गीत भर गए जेहन में ,
एक तरफ़ आंतकवाद है ,
एक तरफ़
अपराध वतन में ,
काशी ,मगहर
अवध सभी चुप
नहीं सुरक्षित अब महिलाएं |
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "बस काम तमाम हो गया - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-08-2016) को "कल स्वतंत्रता दिवस है" (चर्चा अंक-2434) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'