Sunday, 27 October 2024

ग़ज़ल -समंदर से उठे हैं या नहीं

 

चित्र साभार गूगल


समंदर से उठे हैं या नहीं बादल ये रब जाने 
नजूमी बाढ़ का मज़र लगे खेतों को दिखलाने 

नमक से अब भी सूखी रोटियां मज़दूर खाते हैं 
भले ही कृष्ण चंदर ने लिखे हों इनपे अफ़साने 

रईसी देखनी है मुल्क की तो क्यों भटकते हो 
सियासतदां का घर देखो या फिर बाबू के तहखाने 

मुसाफिऱ छोड़ दो चलना ये रस्ता है तबाही का 
यहाँ हर मोड़ पे मिलते हैं साक़ी और मयखाने 

चलो जंगल से पूछें या पढ़े मौसम की खामोशी 
परिंदे उड़ तो सकते हैं मगर गाते नहीं गाने 

ये वो बस्ती है जिसमें सूर्य की किरनें नहीं पहुँची 
करेंगे जानकर भी क्या ये सूरज -चाँद के माने 

सफ़र में साथ चलकर हो गए हम और भी तन्हा 
न उनको हम कभी जाने न वो हमको ही पहचाने 

जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 


Saturday, 19 October 2024

दो ग़ज़लें

 

चित्र साभार गूगल 

खौफ़ का कितना हसीं मंजर था मेरे सामने 

हर किसी के हाथ में पत्थर था मेरे सामने 


प्यार से जब खेलते बच्चे को चाहा चूमना 

मैं वक़्त का पाबंद था दफ़्तर था मेरे सामने 


अमन की बातें परिंदे कैसे मेरी मानते 

रक्त में डूबा हुआ एक पर था मेरे सामने 


अब तलक भूली नहीँ बचपन की मुझको वो सजा 

मैं खड़ा था धूप में और घर था मेरे सामने 


जन्मदिन पर तेरे कैसे भेंट करता फूल मैं 

सहरा था मेरे सामने बंजर था मेरे सामने 

कवि जयकृष्ण राय तुषार 


चित्र साभार गूगल 

समस्याओं का रोना है अब उनका हल नहीं होता 

हमारे बाजुओं में अब तनिक भी बल नहीँ होता 

समय के पंक में उलझी है फिर गंगा भगीरथ की 
सुना उज्जैन की क्षिप्रा में भी अब जल नहीं होता 

सहन में बोन्साई हैं न साया है न खुशबू है 
परिंदे किस तरह आएंगे इनमें फल नहीं होता 

नशे में शोर को  संगीत का सरगम समझते हो 
शहर की धुंध में वंशी नहीं मादल नहीं होता 

सफऱ में हम भी तन्हा हैं सफऱ में तुम भी तन्हा हो 
किसी भी मोड़ पर अब खूबसूरत पल नहीं होता 

प्रतीक्षा में तुम्हारी हम समय पर आके तो देखो 
जो जज्बा आज दिल में है वो शायद कल नहीं होता 

जिसे तुम देखकर खुश हो मरुस्थल की फ़िज़ाओं में 
ये उजले रंग के बादल हैं इनमें जल नहीं होता 


Thursday, 17 October 2024

एक ग़ज़ल -एक नग़्मा है उजाला

 


दीपावली अभी दूर है लेकिन एक ताज़ा ग़ज़ल 

सादर 


ग़ज़ल 

एक नग़्मा है उजाला इसे गाते रहिए 

इन चरागों को मोहब्बत से जलाते रहिए 


फूल, मिष्ठान, अगरबत्ती, हवन, पूजा रहे 

राम की नगरी अयोध्या को सजाते रहिए 


चाँद को भी है मयस्सर कहाँ ये दीवाली 

शिव की काशी में गगन दीप जलाते रहिए 


भारतीय संस्कृति की पहचान हैँ मिट्टी के दिए 

घर के आले में या आँगन में जलाते रहिए 


पर्व यह ज्योति,पटाखों का, सफाई का भी 

दिल के पर्दों पे जमीं धूल हटाते रहिए 


सबके घर कामना मंगल की, सनातन है यही 

जो भी दुख -दर्द में हैँ उनको हँसाते रहिए 


आज अध्यात्म के श्रृंगार की अमावस्या 

आप भी चाँद सा मुखड़ा ये दिखाते रहिए 

कवि जयकृष्ण राय तुषार



एक पुराना होली गीत. अबकी होली में

   चित्र -गूगल से साभार  आप सभी को होली की बधाई एवं शुभकामनाएँ  एक गीत -होली  आम कुतरते हुए सुए से  मैना कहे मुंडेर की | अबकी होली में ले आन...