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चित्र साभार गूगल |
समंदर से उठे हैं या नहीं बादल ये रब जाने
नजूमी बाढ़ का मज़र लगे खेतों को दिखलाने
नमक से अब भी सूखी रोटियां मज़दूर खाते हैं
भले ही कृष्ण चंदर ने लिखे हों इनपे अफ़साने
रईसी देखनी है मुल्क की तो क्यों भटकते हो
सियासतदां का घर देखो या फिर बाबू के तहखाने
मुसाफिऱ छोड़ दो चलना ये रस्ता है तबाही का
यहाँ हर मोड़ पे मिलते हैं साक़ी और मयखाने
चलो जंगल से पूछें या पढ़े मौसम की खामोशी
परिंदे उड़ तो सकते हैं मगर गाते नहीं गाने
ये वो बस्ती है जिसमें सूर्य की किरनें नहीं पहुँची
करेंगे जानकर भी क्या ये सूरज -चाँद के माने
सफ़र में साथ चलकर हो गए हम और भी तन्हा
न उनको हम कभी जाने न वो हमको ही पहचाने