चित्र -गूगल से साभार |
एक गीत -बुन रही होगी शरद की चांदनी
बुन रही होगी
शरद की
चांदनी स्वेटर गुलाबी |
दबे पांवों
सीढ़ियाँ चढ़
हम छतों पर टहल आयें ,
कनखियों
से देखकर फिर
होठ काटें मुस्कुरायें ,
चलो ढूंढें
फिर दराजों में
पुराने ख़त जबाबी |
बांसुरी से
कहाँ मुमकिन
कठिन ऋतुओं को रिझाना ,
शाल ओढ़े
कहीं देवानंद
बनकर गुनगुनाना ,
नहीं होते हैं
कहीं संगीत
चिड़ियों के किताबी |
शून्य में
अपलक निहारे
टिमटिमाते हुए तारे ,
अब दिशाओं में
नहीं माँ बोल
मीठे हैं तुम्हारे !
कहीं अपनापन
नहीं है
ढूंढ आया किचन ,लाबी |
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17.11.2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2529 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
bahut sundar geet hai tushar ji hardik badhai
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteअति सुंदर रचना...
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