राजा
करता वही
उसे जो भाता है |
कवि
कविता लिखता
जनगीत न गाता है |
कविता लिखता
जनगीत न गाता है |
राजधर्म के
सब दरवाजे
बन्द मिले ,
सरहद के
भीतर कसाब -
जयचन्द मिले ,
बन्दी
पृथ्वीराज
सिर्फ़ पछताता है |
गोदामों
के बाहर
गेहूँ सड़ता है ,
नेता
रोज तिलस्मी
भाषण पढ़ता है ,
कर्ज
चुकाने में
किसान मर जाता है |
उनकी
दूरंतो
अपनी नौचन्दी है ,
संसद से
मत सच
कहना पाबन्दी है ,
संविधान
बस अपना
भाग्यविधाता है |
पौरुष है
लड़ने का पर
हथियार नहीं है ,
सिर पर
पगड़ीवाला
अब सरदार नहीं है ,
मुल्क
हमारा रब ही
सिर्फ़ चलाता है |
[मेरी यह कविता आज [31-03-2012 ] अमर उजाला काम्पैक्ट में प्रकाशित है सिर्फ़ इलाहाबाद संस्करण के आलावा|साभार अमर उजाला | ]
[मेरी यह कविता आज [31-03-2012 ] अमर उजाला काम्पैक्ट में प्रकाशित है सिर्फ़ इलाहाबाद संस्करण के आलावा|साभार अमर उजाला | ]
देश समाज की विडम्बना को सटीक बिम्बों से आपने खींचा है।
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा है देश अपना अब रब ही चलाता है
ReplyDeleteमुखर अभिव्यक्ती को स्वर मिला है सार्थक सफल संदेस के लिए बधाई .....
ReplyDeleteसिर पर
ReplyDeleteपगड़ीवाला
अब सरदार नहीं है ,sahi bat.
कल ही पढ़ ली थी कविता फेसबुक पर, वाकई उसी के वश का है!
ReplyDeleteमुल्क
ReplyDeleteहमारा रब ही
सिर्फ़ चलाता है |
Sach hi hai....
सामयिक परिस्थितियों पर कटाक्ष करती सहज कविता।
ReplyDeleteसटीक बिम्ब ....बढ़िया रचना
ReplyDeleteपौरुष है
ReplyDeleteलड़ने का पर
हथियार नहीं है ,
सिर पर
पगड़ीवाला
अब सरदार नहीं है ,
मुल्क
हमारा रब ही
सिर्फ़ चलाता है |
___________________
क्या करें ?????????
http://urvija.parikalpnaa.com/2012/04/blog-post.html
ReplyDeleteसच!!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteभगवान भरोसे ही चल रहा है.....
बहुत बढ़िया.
सादर.
अनु
कोई शक...जिस देश में कानून व्यवस्था ना हो...वहां भगवान ही बसता है...इतने बाबा इसी धरा पर क्यों अवतरित हुए...ताकि भगवान की सत्ता की आड़ में शासन की कुव्यवस्था को छिपाया जा सके...
ReplyDeleteगज़ब की कविता है।
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