चित्र -गूगल से साभार |
बसन्त पर्व पर मंगलकामनाओं के साथ -
एक गीत -हो गया अपना इलाहाबाद, पेरिस,अबू धाबी
शरद में ठिठुरा हुआ मौसम
लगा होने गुलाबी |
हो गया
अपना इलाहाबाद
पेरिस ,अबू धाबी |
देह से
उतरे गुलाबी -
कत्थई ,नीले पुलोवर ,
गुनगुनाने लगे
घंटों तक
घरों के बन्द शावर ,
लाँन में
आराम कुर्सी पर
हुए ये दिन किताबी |
घोंसलों से
निकल आये
पाँव से चलने लगे ,
ये परिन्दे
झील ,खेतों में
हमें मिलने लगे ,
चुग नहीं
पाते अभी दानें
यही इनकी खराबी |
स्वप्न देखें
फागुनी -
फागुनी -
ऑंखें गुलालों के ,
लौट आये ,
दिन मोहब्बत
के रिसालों के ,
डाकिये
डाकिये
फिर खोलकर
पढ़ने लगे हैं खत जबाबी |
खनखनाती
चूड़ियाँ जैसे
बजें संतूर ,
सहचरी को
कनखियों से
देखते मजदूर
बजें संतूर ,
सहचरी को
कनखियों से
देखते मजदूर
सुबह
नरगिस, दोपहर
लगने लगी परवीन बाबी |
चित्र -गूगल से साभार |
मन में उल्लास तो हर ओर प्रीत ही प्रीत है.....
ReplyDelete:-)
ReplyDeletenice!!!
badhiya rhyming....
शब्द चयन और उनका रख-रखाव क़ाबिले-तारीफ है.
ReplyDeleteजय हो..इलाहाबाद में अब सारे सुख मिलेंगे...
ReplyDeleteबसंतोत्सव पर उत्साह का संचार करती पोस्ट।
ReplyDeleteबसंत पंचमी की शुभकामनाएं....
Wah wah wah!
ReplyDeleteबहुत खूब! रचना के शब्द और भाव बसन्त की बयार की तरह प्रफुल्लित कर गये..बसन्त पंचमी की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteबड़ा ही सुंदर गीत है। लगता है इसी बहाने आपने अपनी पसंदीदा नायिकाओं को भी याद कर लिया है। :)
ReplyDeleteमौसम का तकाज़ा है...ठण्ड आने का मज़ा अलग है तो जाने का अलग ही मज़ा है...बसंत के आगमन की शुभकामनाएं...
ReplyDeleteमौसम का तकाज़ा है...ठण्ड आने का मज़ा अलग है तो जाने का अलग ही मज़ा है...बसंत के आगमन की शुभकामनाएं...
ReplyDeleteडॉ० मोनिका जी ,विद्या जी ,भाई प्रवीण जी अतुल जी भाई कैलाश शर्मा जी ,क्षमा जी और देविका रानी जी आप सभी का बहुत -बहुत आभार |
ReplyDeleteएकदम मौलिक कल्पनायें, कविता के भाव को जीवन की वास्तविकता के साथ प्रस्तुत कर मन को उल्लसित कर रही हैं.
ReplyDeleteऔर ये पंक्तियाँ तो, जिस वर्ग पर किसी का ध्यान नहीं उसके भीतर जगे वसंत-राग को स्वर दे दिया है-
खनखनाती
चूड़ियाँ जैसे
बजें संतूर ,
सहचरी को
कनखियों से
देखते मजदूर
सुबह
नरगिस, दोपहर
लगने लगी परवीन बाबी |
एकदम मौलिक कल्पनायें, कविता के भाव को जीवन की वास्तविकता के साथ प्रस्तुत कर मन को उल्लसित कर रही हैं.
ReplyDeleteऔर ये पंक्तियाँ तो, जिस वर्ग पर किसी का ध्यान नहीं उसके भीतर जगे वसंत-राग को स्वर दे दिया है-
खनखनाती
चूड़ियाँ जैसे
बजें संतूर ,
सहचरी को
कनखियों से
देखते मजदूर
सुबह
नरगिस, दोपहर
लगने लगी परवीन बाबी |
बड़ी रोचक है यह रचना।
ReplyDeleteगुनगुनाने लगे
ReplyDeleteघंटों तक
घरों के बन्द शावर ,
लाँन में
आराम कुर्सी पर
हुए ये दिन किताबी |
वाह...क्या शब्द हैं और क्या भाव... बेजोड़ रचना...बधाई
नीरज
लगता है बसंत का प्रभाव इलाहबाद में कुछ अधिक ही है
ReplyDeleteनर्गिस और परवीन बाबी का जवाब नहीं
bahut sundar rachna, badhai.
ReplyDeletekhoobsurat .manbhavan chahakti hui si prastuti . maan ko bhigo gayi .badhai .tushar ji
ReplyDeleteखनखनाती
ReplyDeleteचूड़ियाँ जैसे
बजें संतूर ,
सहचरी को
कनखियों से
देखते मजदूर
सुबह
नरगिस, दोपहर
लगने लगी परवीन बाबी |
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वाह जी वाह
बढ़िया रचना |
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