![]() |
चित्र साभार गूगल |
एक गीत -मोरपँखी गीत
![]() |
चित्र साभार गूगल |
(कृपया बिना अनुमति के इस ब्लॉग में प्रकाशित किसी भी अंश का किसी भी तरह से उपयोग न करें)
![]() |
चित्र साभार गूगल |
एक गीत -मोरपँखी गीत
![]() |
चित्र साभार गूगल |
![]() |
समीक्षक श्री अनुपम परिहार |
मेरे ग़ज़ल संग्रह*सियासत भी इलाहाबाद में संगम नहाती है*
पर अनुपम परिहार की कलम
ग़ज़लकार जयकृष्ण राय 'तुषार' ने मुलाक़ात करके मुझे अपना ग़ज़ल संग्रह ‘सियासत भी इलाहाबाद में संगम नहाती है’ भेंट किया। इस संग्रह को मैंने आज शाम से पढ़ना शुरू किया है। पढ़ते हुए महसूस हुआ कि इन ग़ज़लों में समकालीन जीवन की विडम्बनाएँ, मनुष्य की जद्दोजहद और बदलते परिवेश के मार्मिक चित्र बड़ी सहजता से सामने आते हैं।
इन ग़ज़लों की ख़ासियत यह है कि तुषार अपने परिवेश और समाज से गहरे जुड़े हुए हैं। वे प्रतीकों और बिम्बों के सहारे पाठक को सोचने पर मज़बूर करते हैं।
आज़ादी पेड़ हरा है ये मौसमों से कहो न सूख पाएं ये परिंदों को एतबार रहे।
इन पंक्तियों में कवि ने आज़ादी को हरियाली और जीवन से जोड़कर उसकी नमी और ताज़गी बचाए रखने का संदेश दिया है।
बाज़ारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति के दबाव में बदलते घरेलू परिदृश्य का यथार्थ उनकी इन पंक्तियों में साफ़ झलकता है।
खिलौने आ गए बाज़ार से लेकिन हुनर का क्या
मेरी बेटी कहां अब शौक से गुड़िया बनाती है।
यह शेर केवल एक बच्ची की आदत के बदलने की बात नहीं है, बल्कि बदलते समय में लुप्त हो रही रचनात्मकता और सहजता की ओर भी इशारा करता है।
संग्रह में औरत की बदलती भूमिका पर भी बेहद सटीक टिप्पणी मिलती है।
न चूड़ी है, ना बिंदी है, न काजल, मांग का टीका है
यह औरत कामकाजी है, यह चेहरा इस सदी का है।
यह शेर समकालीन स्त्री के संघर्ष और आत्मनिर्भरता का स्पष्ट व सशक्त चित्रण करता है। यहाँ तुषार किसी आदर्श स्त्री की कल्पना नहीं करते, बल्कि वास्तविक जीवन से उठाए गए दृश्य को कविता में दर्ज़ करते हैं।
इस संग्रह की ग़ज़लें समाज के भीतर चल रहे छोटे-छोटे परिवर्तनों को गहरी संवेदनशीलता के साथ दर्ज़ करती हैं। तुषार की भाषा सधी हुई है और उनका शिल्प सहज। यह संग्रह निश्चय ही पाठक को अपने समय और परिवेश की पड़ताल करने को विवश करता है।
![]() |
मेरा ग़ज़ल संग्रह |
18/08/25
![]() |
चित्र साभार गूगल |
तमाम फूल, तितलियों में भी उदास रहा
![]() |
चित्र साभार गूगल |
![]() |
चित्र साभार गूगल |
एक ग़ज़ल
![]() |
चित्र साभार गूगल |
![]() |
चित्र साभार गूगल |
एक ग़ज़ल
साज साजिन्दे सभी महफ़िल में घबराने लगे
सब घराने आपकी मर्ज़ी से ही गाने लगे
भूल जाएगा ज़माना दादरा, ठुमरी, ग़ज़ल
अब नई पीठी को शापिंग माल ही भाने लगे
जिंदगी भी दौड़ती ट्रेनों सी ही मशरूफ़ है
आप मुद्द्त बाद आए और अभी जाने लगे
झील में पानी, हवा में ताज़गी मौसम भी ठीक
फूल में खुशबू नहीं भौँरे ये बतियाने लगे
प्यार से लोटे में जल चावल के दाने रख दिए
फिर कबूतर छत में मेरे हाथ से खाने लगे
हम भी बचपन में शरारत कर के घर में छिप गए
अब बड़े होकर ज़माने भर को समझाने लगे
बीच जंगल से गुजरते अजनबी को देखकर
आदतन ये रास्ते फिर फूल महकाने लगे
देखकर प्रतिकूल मौसम उड़ गए संगम से जो
ये प्रवासी खुशनुमा मौसम में फिर आने लगे
कवि जयकृष्ण राय तुषार
![]() |
चित्र साभार गूगल |
भारतीय सेना विश्व की सबसे अनुशासित और बहादुर सेना है. भारत ही नहीं इस सेना के त्याग और बलिदान की गाथा समूचे विश्व में गुंजायमान है. भारत की...