Wednesday, 20 August 2025

एक गीत -गा रहा होगा पहाड़ों में कोई जगजीत

 

चित्र साभार गूगल

एक गीत -मोरपँखी गीत 


इस मारुस्थल में 
चलो ढूँढ़े 
नदी को मीत.
डायरी में 
लिखेंगे 
कुछ मोरपँखी गीत.

रेत में 
पदचिन्ह होंगे 
या मिटे होंगे,
बेर से 
लड़कर 
हरे पत्ते फटे होंगे,
फूल के 
ऊपर लिखेंगे 
तितलियों की जीत.

घाटियों में 
रंग होंगे 
हरापन होगा,
जहाँ तुम 
होगी वहाँ 
कुछ नयापन होगा,
इन परिंदो 
के यहाँ 
होगा सुगम संगीत.

आदिवासी 
घाटियों में
रंग सारे हैं,
अतिथि
स्वागत में
सभी बाहें पसारे हैं,
गा रहा होगा
पहाड़ी धुन
कोई जगजीत.

कवि जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल


Monday, 18 August 2025

अनुपम परिहार की कलम से समीक्षा

 

समीक्षक श्री अनुपम परिहार


मेरे ग़ज़ल संग्रह*सियासत भी इलाहाबाद में संगम नहाती है*

पर अनुपम परिहार की कलम

ग़ज़लकार जयकृष्ण राय 'तुषार' ने मुलाक़ात करके मुझे अपना ग़ज़ल संग्रह ‘सियासत भी इलाहाबाद में संगम नहाती है’ भेंट किया। इस संग्रह को मैंने आज शाम से पढ़ना शुरू किया है। पढ़ते हुए महसूस हुआ कि इन ग़ज़लों में समकालीन जीवन की विडम्बनाएँ, मनुष्य की जद्दोजहद और बदलते परिवेश के मार्मिक चित्र बड़ी सहजता से सामने आते हैं।

इन ग़ज़लों की ख़ासियत यह है कि तुषार अपने परिवेश और समाज से गहरे जुड़े हुए हैं। वे प्रतीकों और बिम्बों के सहारे पाठक को सोचने पर मज़बूर करते हैं। 


आज़ादी पेड़ हरा है ये मौसमों से कहो  न सूख पाएं ये परिंदों को एतबार रहे।


इन पंक्तियों में कवि ने आज़ादी को हरियाली और जीवन से जोड़कर उसकी नमी और ताज़गी बचाए रखने का संदेश दिया है।


बाज़ारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति के दबाव में बदलते घरेलू परिदृश्य का यथार्थ उनकी इन पंक्तियों में साफ़ झलकता है।


खिलौने आ गए बाज़ार से लेकिन हुनर का क्या 

 मेरी बेटी कहां अब शौक से गुड़िया बनाती है।


यह शेर केवल एक बच्ची की आदत के बदलने की बात नहीं है, बल्कि बदलते समय में लुप्त हो रही रचनात्मकता और सहजता की ओर भी इशारा करता है।


संग्रह में औरत की बदलती भूमिका पर भी बेहद सटीक टिप्पणी मिलती है।


 न चूड़ी है, ना बिंदी है, न काजल, मांग का टीका है 

यह औरत कामकाजी है, यह चेहरा इस सदी का है।


यह शेर समकालीन स्त्री के संघर्ष और आत्मनिर्भरता का स्पष्ट व सशक्त चित्रण करता है। यहाँ तुषार किसी आदर्श स्त्री की कल्पना नहीं करते, बल्कि वास्तविक जीवन से उठाए गए दृश्य को कविता में दर्ज़ करते हैं।

इस संग्रह की ग़ज़लें समाज के भीतर चल रहे छोटे-छोटे परिवर्तनों को गहरी संवेदनशीलता के साथ दर्ज़ करती हैं। तुषार की भाषा सधी हुई है और उनका शिल्प सहज। यह संग्रह निश्चय ही पाठक को अपने समय और परिवेश की पड़ताल करने को विवश करता है।

मेरा ग़ज़ल संग्रह


18/08/25

Sunday, 17 August 2025

एक ग़ज़ल -यादों के आसपास रहा

 

चित्र साभार गूगल

तमाम फूल, तितलियों में भी उदास रहा 

बिछड़ने वाला ही यादों के आसपास रहा 

जहाँ भी फूल थे शाखों पे खिलखिलाते रहे 
हवा के साथ उड़ानों में बस कपास रहा 

तमाम ग़म को छिपाए हँसी की चादर से 
गुलाम मुल्क में जैसे वो क्रीत दास रहा 

जो पेड़ आज परिंदो का आशियाना है 
वसंत आने के पहले वो बेलिबास रहा 

किसी के आने की आहट थी चाँदनी की तरह 
तमाम रात अँधेरे में भी उजास रहा 

न मोर पंख न तितली,नदी, हिरण भी नहीं 
ये गाँव गाँव नहीं था ये बस नख़ास रहा 

हमेशा अजनबी रस्तों में काम आते रहे 
शिकस्त उससे मिली जो हमारा खास रहा 

सलोने रंग में उलझे जो देवदास बने
जो स्याम रंग में डूबा वो सूरदास रहा

जयकृष्ण राय तुषार 
चित्र साभार गूगल


Monday, 11 August 2025

एक ग़ज़ल -मौसम का रंग

 

चित्र साभार गूगल

एक ग़ज़ल 

तितली का इश्क़, बाग का श्रृंगार ले गया
खिलते ही सारे फूल वो बाज़ार ले गया 

मौसम का रंग फीका है, भौँरे उदास हैं
गुलशन का कोई शख्स कारोबार ले गया 

उसका ही रंगमंच था नाटक उसी का था 
मुझसे चुराके बस मेरा किरदार ले गया 

अपने शहर का हाल मुझे ख़ुद पता नहीं
भींगा था कोई धूप में अख़बार ले गया

दरिया के बीच जाके मुझे तैरना पड़ा 
कश्ती मैं अपने साथ में बेकार ले गया 

आँधी नहीं है फिर भी परिंदो का शोर है 
जंगल की शांति फिर कोई गुलदार ले गया 

ख्वाबों में गुलमोहर ही सजाता था जो कभी 
वो फूल देके मुझको सभी ख़ार ले गया 

इस बार भी न दोस्तों से गुफ़्तगू हुई 
साहब का दौरा अबकी भी इतवार ले गया 

कवि शायर जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल


Friday, 1 August 2025

एक ताज़ा ग़ज़ल -सब घराने आपकी मर्ज़ी से ही गाने लगे

 

चित्र साभार गूगल

एक ग़ज़ल 

साज साजिन्दे सभी महफ़िल में घबराने लगे 

सब घराने आपकी मर्ज़ी से ही गाने लगे 


भूल जाएगा ज़माना दादरा, ठुमरी, ग़ज़ल 

अब नई पीठी को शापिंग माल ही भाने लगे 


जिंदगी भी दौड़ती ट्रेनों सी ही मशरूफ़ है 

आप मुद्द्त बाद आए और अभी जाने लगे 


झील में पानी, हवा में ताज़गी मौसम भी ठीक 

फूल में खुशबू नहीं भौँरे ये बतियाने लगे


प्यार से लोटे में जल चावल के दाने रख दिए

फिर कबूतर छत में मेरे हाथ से खाने लगे


हम भी बचपन में शरारत कर के घर में छिप गए

अब बड़े होकर ज़माने भर को समझाने लगे


बीच जंगल से गुजरते अजनबी को देखकर

आदतन ये रास्ते फिर फूल महकाने लगे


देखकर प्रतिकूल मौसम उड़ गए संगम से जो

ये प्रवासी खुशनुमा मौसम में फिर आने लगे

कवि जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल


सूबेदार मेज़र हरविंदर सिंह जी से आत्मीय मुलाक़ात और पुस्तक भेंट

 भारतीय सेना विश्व की सबसे अनुशासित और बहादुर सेना है. भारत ही नहीं इस सेना के त्याग और बलिदान की गाथा समूचे विश्व में गुंजायमान है. भारत की...