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चित्र साभार गूगल |
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चित्र साभार गूगल |
एक ताज़ा गीत -लहरें गिनना भूल गए
झीलों में पत्थर
उछालकर
लहरें गिनना भूल गए.
अपने मन की
आवाज़ों को
कैसे सुनना भूल गए.
भूल गए
गलियाँ, चौबारे
चिलम फूँकते गाँव, ओसारे,
खुली खाट पर
नील गगन में
गिनते उल्का पिंड,सितारे,
माँ की पूजा
की डलिया में
गुड़हल चुनना भूल गए.
सारे मौसम
खिले-खिले थे
बाग-बगीचे वृंदावन थे,
हिरनों, हंसों
हारिल के संग
चिड़ियों के कलरव के वन थे,
पर्वत के उस पार
नदी से
जाकर मिलना भूल गए.
सुबहें निर्गुण
भजन सुनाती
दिन थे खेती हल,बैलों के,
रिश्तों में थी
महक इत्र सी
घर थे मिट्टी, खपरैलों के,
सनई, पटसन
के रेशों से
रस्सी बुनना भूल गए.
कवि
जयकृष्ण राय तुषार
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चित्र साभार गूगल |
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 14 अप्रैल 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
ReplyDeleteआपका हृदय से आभार
ReplyDeleteबहुत ही मीठी सी रचना, गाँव के पनघट सी या बारिश की सोंधी महक सी
ReplyDeleteसादर अभिवादन. हार्दिक आभार
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