चित्र -साभार गूगल |
दो गीत -जयकृष्ण राय तुषार
एक -मन ही मन ख़ामोश कबूतर
मन ही मन ख़ामोश
कबूतर कुछ बतियाता है |
बन्द लिफ़ाफे लेकर
अब डाकिया न आता है |
क्या इस युग में सब
इतने निष्ठुर हो जाएंगे , ,
अन्तरंग बातें भी
यंत्रों से बतियाएंगे
कोई बनकर अतिथि
नहीं अब आता जाता है |
साँझ ढले माँ के चौके
अब धुंआ नहीं होता ,
गागर में सागर क्या
पनघट कुआँ नहीं होता
कोई बच्चा अब न
तितलियों को दौड़ाता है |
चाँद -सितारों की छाया में
सोना कहाँ गया
फूलों की घाटी में मन का
खोना कहाँ गया
अब न सगुन के समय
कोई भौंरा मडराता है |
दो -
कोई गीत लिखा मौसम ने
कोई गीत लिखा मौसम ने
आज तुम्हारे नाम |
हरे -भरे खेतों में
सरसों के लहराते फूल
बहके -बहके पाँव हवा के
कदम -कदम पे भूल
कई दिनों के बाद चीरकर
कोहरा निकला घाम |
अरसे बाद गाँव से आयी
चिट्ठी खोल रहा
बनकर होंठ गुलाबी
हर इक अक्षर बोल रहा
बहुत दिनों के बाद आज
दोनों रचनाएं अंतर्मन को छूने वाली है है, यथार्त और सुन्दर सृजन हेतु बधाई और साधुवाद आदरणीय
ReplyDeleteआपका हृदय से आभार राणा जी |सादर अभिवादन
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (10-02-2020) को 'खंडहर में उग आयी है काई' (चर्चा अंक 3607) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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रवीन्द्र सिंह यादव
वाह !बहुत ही सुन्दर सृजन
ReplyDeleteसादर
दोनों गीत मॉल को छूकर अंतस को झंकृत कर गये तुषार जी | बीते समय की यादों की असहनीय कसक लिए पहला गीत आँखें नाम कर गया तो दुसरे गीत में --
ReplyDeleteतेरी आहट से उदासियाँ
हुईं आज नीलाम--- पंक्तियाँ कुछ कहने का रास्ता ही बंद कर रही हैं | आज सही अर्थों में आपके लेखन से रूबरू हुई , यूँ ब्लॉग पर आई तो कई बार हूँ | हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई सुंदर लेखन के लिए |