एक गीत-नदी में जल नहीं है
धुन्ध में आकाश,
पीले वन,
नदी में जल नहीं है ।
इस सदी में
सभ्यता के साथ
क्या यह छल नहीं है ?
गीत-लोरी
कहकहे
दालान के गुम हो गये,
ये वनैले
फूल-तितली,
भ्रमर कैसे खो गये,
यन्त्रवत
होना किसी
संवेदना का हल नहीं है ।
कहाँ तुलसी
और कबिरा का
पढ़े यह मंत्र काशी,
लहरतारा
और अस्सी
मुँह दबाये पान बासी,
यहाँ
संगम है मगर
जलधार में कल-कल नहीं है ।
कला-संस्कृति
गीत-कविता
इस समय के हाशिये हैं,
आपसी
सम्वाद-निजता
लिख रहे दुभाषिये हैं,
हो गए
अनुवाद हम पर
कहीं कुछ हलचल नहीं है ।
सभी चित्र साभार गूगल |
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 28 नवम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ नवंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (29-11-2019 ) को "छत्रप आये पास" (चर्चा अंक 3534) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये जाये।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
-अनीता लागुरी 'अनु'
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीय
ReplyDeleteसादर
सार्थक चिंतन देती काव्यात्मक प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteआप सभी का हृदय से आभार
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