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चित्र -गूगल से साभार |
एक गीत -बहुत दिनों से इस मौसम को
बहुत दिनों से
इस मौसम को
बदल रहे हैं लोग |
अलग -अलग
खेमों में बंटकर
निकल रहे हैं लोग |
हम दुनिया को
बदल रहे पर
खुद को नहीं बदलते ,
अंधे की
लाठी लेकर के
चौरस्तों पर चलते ,
बिना आग के
अदहन जैसे
उबल रहे हैं लोग |
धूप ,कुहासा ,
ओले ,पत्थर
सब जैसे के तैसे ,
दुनिया पहुंची
अन्तरिक्ष में
हम आदिम युग जैसे ,
नासमझी में
जुगनू लेकर
उछल रहे हैं लोग |
गाँव सभा की
दूध ,मलाई
परधानों के हिस्से ,
भोले भूखे
बच्चे सोते
सुन परियों के किस्से ,
ईर्ष्याओं की
नम काई पर
फिसल रहे हैं लोग |
हिंसा ,दंगे
राहजनी में
उलझी है आबादी ,
कितनी कसमें
कितने वादे
सुधर न पायी खादी ,
नागफ़नी वाली
सड़कों पर
टहल रहे हैं लोग |