चित्र गूगल से साभार |
सुबह अब
देर तक सूरज
लगा सोने पहाड़ों में |
हमें भी
आलसी, मौसम
बना देता है जाड़ों में |
गुलाबी होंठ
हाथों में
लिए काफी जगाते हैं ,
लिहाफों में
हम बच्चों की
तरह ही कुनमुनाते हैं ,
न चढ़ती है
न खुलती
सिटकिनी ऊँचे किवाड़ों में |
कुहासे में
परिंदे राह
मीलों तक भटक जाते ,
कभी गिरकर के
पेड़ों की
टहनियों में अटक जाते ,
कोई कुश्ती में
धोबी पाट
दिखलाता अखाड़ों में |
नदी में
चोंच से
लड़ते हुए पंछी लगे तिरने ,
गगन में
सूर्य के घोड़े
कुहासे में लगे घिरने ,
हवा का
शाल पश्मीना
चिपक जाता है ताड़ों में |
किसी को भी
बुलाओ तो
नहीं अब सुन रहा कोई ,
नया आलू
अंगीठी में
पलटकर भुन रहा कोई ,
खनक
वैसी नहीं अब
रात में बजते नगाड़ों में |
बहुत प्यारा चित्रण प्रकृति का..
ReplyDeleteजाड़े की धूप सी... तन मन को गर्माहट पहुँचती रचना|
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
ReplyDeleteप्यारी कविता, जैसे कोई पेंटिंग....
सादर
अनु
बेहतरीन,मनमोहक प्रकृति का सुंदर चित्रण ,,,,
ReplyDeleterecent post: वजूद,
हवा का
ReplyDeleteशाल पश्मीना
चिपक जाता है ताड़ों में |
नए प्रतीकों से प्रकृति चित्रण ...बहुत सुन्दर
वाह...
ReplyDeleteबढ़िया शब्द चित्र !
मौसम के अनुकूल सुन्दर रचना!
ReplyDeleteअति सुन्दर लिखा है..
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