चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार |
लगते बेहाल से |
मानसून कब
लौटेगा बंगाल से ?
कजली रूठी ,झूले गायब
सूने गाँव ,मोहल्ले ,
सावन -भादों इस मौसम में
कितने हुए निठल्ले ,
सोने -चांदी के दिन
हम कंगाल से |
आंखें पीली
चेहरा झुलसा धान का ,
स्वाद न अच्छा लगता
मघई पान का ,
खुशबू आती नहीं
कँवल की ताल से |
नहीं पास से गुजरी कोई
मेहँदी रची हथेली ,
दरपन मन की बात न बूझे
मौसम हुआ पहेली ,
सिक्का कोई नहीं
गिरा रूमाल से |
फूलों के होठों से सटकर
बैठी नहीं तितलियाँ ,
बिंदिया लगती है माथे की
धानी -हरी बिजलियाँ ,
भींगी लटें नहीं
टकरातीं गाल से |
भींगी देह हवा से सटकर
जाने क्या बतियाती ,
चैन नहीं खूंटे से बंधकर
कजरी गाय रम्भाती ,
अभी नया लगता है
बछड़ा चाल से |
टकरातीं गाल से |
भींगी देह हवा से सटकर
जाने क्या बतियाती ,
चैन नहीं खूंटे से बंधकर
कजरी गाय रम्भाती ,
अभी नया लगता है
बछड़ा चाल से |
प्रिय राय साहब ,बंगाल के बादलों की प्रतीक्षा काव्यमयी धार से चल
ReplyDeleteरसमयी हो गयी है . ...सुंदर मनोहारी वर्णन .शुक्रिया जी /
कजली रूठी ,झूले गायब
ReplyDeleteसूने गाँव ,मोहल्ले ,
सावन -भादों इस मौसम में
कितने हुए निठल्ले ,
सोने -चांदी के दिन
हम कंगाल से
गहन अभिव्यक्ति लिए पंक्तियाँ....सुंदर
प्रिय बंधुवर जयकृष्ण राय तुषार जी
ReplyDeleteसादर सस्नेहाभिवादन !
आज सर्वप्रथम अपराध स्वीकार करते हुए क्षमायाचना करना चाहूंगा …
आपके इतने श्रेष्ठ नवगीत मैं पढ़-पढ़ कर गया हूं यहां … लेकिन प्रतिक्रिया नगण्यमात्र ही दे पाया … यही है मेरा अपराध !
मन का आनन्द मिलता है आपकी उत्कृष्ट रचनाओं द्वारा । लेकिन , इस लेने के बदले में … और तो क्या दिया जाए , 'ले रहा हूं' आगाह तो करना चाहिए !
…
शब्द नहीं हैं मेरे पास आपकी श्रेष्ठ रचनाओं के अनुरूप !
मां सरस्वती का प्रसाद अनवरत बांटते रहें …
सादर बधाई और शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
फूलों के होठों से सटकर
ReplyDeleteबैठी नहीं तितलियाँ ,
बिंदिया लगती है माथे की
धानी -हरी बिजलियाँ ,
भींगी लटें नहीं
टकरातीं गाल से |
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ! ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना! बधाई!
सिक्का कोई नहीं
ReplyDeleteगिरा रूमाल से |
तथा
भींगी लटें नहीं
टकरातीं गाल से |
ये जो बीच बीच में गीत की टेक पर श्रंगारिक टच दे दिया है आपने, ये वास्तव में ग़ज़ब की सुन्दरता बढ़ा रहे हैं.मज़ा आ गया.
बहुत सुंदर नवगीत है तुषार जी, हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।
ReplyDeleteबहुत सुंदर ... लाजवाब है पूरा नव गीत ....
ReplyDeleteमानसून की खुशबू आ रही है कविता से....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर नवगीत तुषार जी ।
ReplyDeleteआनंददायी
भाई राजेन्द्र जी आपको बिलकुल क्षमा याचना करने की आवश्यकता नहीं है |आप मेरे गीतों को चुपचाप पढ़ते रहे यही कविता की सफलता है कमेंट्स करना बहुत आवश्यक नहीं है |बस कमेंट्स से आपके भावोद्गार हम तक पहुंच जाते हैं |
ReplyDeleteman mugdh ho aapki rachna padhkar..
ReplyDeleteसुंदर नवगीत में आपने भींगा ही दिया....
ReplyDeleteAapki rachna sunder hai.
ReplyDeleteफूलों के होठों से सटकर
ReplyDeleteबैठी नहीं तितलियाँ ,
बिंदिया लगती है माथे की
धानी -हरी बिजलियाँ ,
भींगी लटें नहीं
टकरातीं गाल से |
तुषार जी ,निर्झर की तरह कल-कल करती सुन्दर रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई।
सहज शब्दों में बातें कहने में आपका कायल हो गया...
ReplyDeleteनहीं पास से गुजरी कोई
ReplyDeleteमेहँदी रची हथेली ,
दरपन मन की बात न बूझे
मौसम हुआ पहेली ,
सिक्का कोई नहीं
गिरा रूमाल से |
बहुत सुन्दर भावमयी गीत...कोमल अहसास दिल को छू लेते हैं..
राय साहब, बंगाल की खडी से काले बादल आ गए है , घनघोर वृष्टि जे आसार है , तनी आजमगढ़ की तरफ देखिये . सुँदर और मनमोहक गीत .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर नवगीत। पंक्तियों ने मन मोह लिया। आकर्षक।
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