डॉ० अलका प्रकाश हिन्दी की एक युवा लेखिका और कवयित्री हैं |15 जुलाई 1977 को उत्तर प्रदेश के जनपद म ऊ की घोसी तहसील में इस कवयित्री का जन्म हुआ | इलाहबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल करने के बाद इन्होंने डॉ० शैल पाण्डेय जी के निर्देशन में डी० फिल की उपाधि प्राप्त की | नारी चेतना के आयाम स्त्री-विमर्श पर इनकी महत्वपूर्ण पुस्तक है जिसे लोकभारती ने प्रकाशित किया है | तन्द्रा टूटने तक प्रकाशनाधीन है | अलका प्रकाश बड़ी संजीदगी से लेखन कर रही हैं | विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इनकी कवितायेँ /लेख प्रकाशित होते रहते हैं | स्वभाव से विनम्र और मृदुभाषी इस कवयित्री की दो कविताएं हम आप तक पहुंचा रहे हैं:-
कवयित्री डॉ० अलका प्रकाश |
१. आज किसी वजह से
आज किसी वजह से
बहुत दुखी हो
उदास है तुम्हारा मन
उसने ऐसा क्यों किया
उसने ऐसा क्यों किया
कल किसी और वजह से
दुखी होगी
दुखी होगी
सोचो
दुःख ओढ़े रहना कहीं
तुम्हारा स्वाभाव तो नहीं
कारण हमेशा रहेंगे
खुशी तुम्हारे आस-पास ही है
उसे ढूंढो पहचानो
अब तुम कहोगी
मैं ऐसी कहाँ हूँ
यह दुःख तो प्राकृतिक है
कैसे खुश रहूँ
यही मेरी नियति है
वगैरह-वगैरह
देखो प्रश्नों की श्रृंखला का
कोई अंत नहीं
तुम ढूंड ही लोगी
कोई कारण
कोई कारण
हर उदास पल का
एक बहाना जरा जीने का ढूढों |
२. लोकल बस में
लोकल बस में
सफर करते
सफर करते
अक्सर उसकी देह
मर्दों से रगड़ जाती है
कभी घूरती निगाहों से
बचने के लिए
दुपट्टा सर से बांध लेती है
कभी उसके सहयोगी कहते हैं
चलिए घर तक छोड़ दें
वह मना कर देती है
उसने सुने हैं
उनके कहकहे
उसने सुने हैं
उनके कहकहे
यार सीट गरम हो गयी
ऐसी वैसी
बहुत सी बातों को
बहुत सी बातों को
प्रायः वह अनसुना कर देती है
सुबह की आपा-धापी में
जब सारे काम निपटा कर
वह दफ्तर पहुंचती है
जब सारे काम निपटा कर
वह दफ्तर पहुंचती है
खिस्स से एक स्वर उभरता है
ऑफिस में गर्मी आ गयी यार
अब काफी की
कोई जरूरत नहीं है
अब काफी की
कोई जरूरत नहीं है
भोला जाओ
कोल्ड ड्रिंक लाओ
कोल्ड ड्रिंक लाओ
वह आखिर
दुखी क्यों हो जाती है
दुखी क्यों हो जाती है
मध्यम वर्गीय मानसिकता की मारी
जबकि उसे पता है
इसी हॉट शब्द के चक्कर में
सुंदरियां विज्ञापन के लिए
अनवरत
अनवरत
अपने वक्षों और नितंबों की
शल्य क्रियाएँ करा रहीं हैं
शल्य क्रियाएँ करा रहीं हैं
घर पर कुछ बोले तो
कहा जाता है कि
किसने कहा था
घर से बाहर निकलने के लिए
कहा जाता है कि
किसने कहा था
घर से बाहर निकलने के लिए
घर पर पड़ी रहो
किन्तु क्या वहाँ खतरे कम हैं
किन्तु क्या वहाँ खतरे कम हैं
अगर रोकर दुख बाहर करे तो
तो मौके कि तलाश में
रहते हैं
इंसान के भेष में भेडिये
रहते हैं
इंसान के भेष में भेडिये
फिर उसके कानों में
गूंजते हैं रहीम के दोहे ..
.रहिमन निज मन कि व्यथा ......
गूंजते हैं रहीम के दोहे ..
.रहिमन निज मन कि व्यथा ......
कहीं से एक और आवाज उठती है
साइलेंस इज वोयलेंस
इसी उधेड़ बुन में
साइलेंस इज वोयलेंस
इसी उधेड़ बुन में
उसका सर चकरा जाता है
बॉस के चेम्बर में कैसे जाए
जो कुर्सी पर टांग फैलाये
अश्लील फिल्मे देखकर
जो कुर्सी पर टांग फैलाये
अश्लील फिल्मे देखकर
ढू ढ ता है अपना शिकार
कहाँ फरियाद करे
नौकरी जाने का डर
नौकरी जाने का डर
नारीवाद तो सिखा रहा है
देह को मुक्त करो
उसका प्रश्न है किसके लिए
उसका प्रश्न है किसके लिए
इन ड्रेकुलाओं के लिए
कोई दार्शनिक की
भंगिमा में कह रहा है
देखो
भंगिमा में कह रहा है
देखो
औरत की देह हथियार है
इस बाजारवाद के दौर में
तुम्हारे पास देह है
तो
तुम्हारे पास देह है
तो
तुम कुछ भी
खरीद सकती हो
खरीद सकती हो
वह उत्तर देती है
मेरी देह में एक आत्मा भी है
चित्र -गूगल से साभार |
बहुत स्पष्ट और निडर कवयित्री हैं अल्का जी.ये जज़्बा और नैरन्तर्य बना रहे,यही कामना है.
ReplyDeleteबहुत सटीक और सुन्दर रचनाएँ...अंतर्मन को झकझोर देती हैं
ReplyDeleteखुशी तुम्हारे आस-पास ही है
ReplyDeleteउसे ढूंढो पहचानो
सकारात्मकता जीवन को देखने का सही नजरिया है।
मन के अंतर्द्वंद्व को अभिव्यक्त करती अच्छी कविता।
अच्छी लगी दोनों रचनाएँ .....सुंदर बिम्ब....
ReplyDeletealka ji
ReplyDeleteaapki dono kavitaye padh kar laga k aapme aseem sambhawnaye hai
badhai!!!!
Alkaji, aap apni baat ko bina kisi laaglapet ke pathaon ke samane rakh detee hain. achchhee kavitayen hain aapkee, badhai.
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