Thursday, 5 August 2010

मेरी दो ग़ज़लें

चित्र -गूगल सर्च इंजन  से साभार 
एक 
सलीका बांस को बजने का जीवन भर नहीं होता।
बिना होठों के वंशी का भी मीठा स्वर नहीं होता॥


ये सावन गर नहीं लिखता हसीं मौसम के अफसाने।
कोई भी रंग मेंहदी का हथेली पर नहीं होता॥


किचन में मां बहुत रोती है पकवानों की खुशबू में।
किसी त्यौहार पर बेटा जब उसका घर नहीं होता॥


किसी बच्चे से उसकी मां को वो क्यों छीन लेता है।
अगर वो देवता होता तो फिर पत्थर नहीं होता ॥


परिंदे वो ही जा पाते हैं ऊंचे आसमानों तक।
जिन्हें सूरज से जलने का तनिक भी डर नहीं होता॥




चित्र -गूगल से साभार 


दो 
नये घर में पुराने एक दो आले तो रहने दो,
दिया बनकर वहीं से मां हमेशा रोशनी देगी।


ये सूखी घास अपने लान की काटो न तुम भाई,
पिता की याद आयेगी तो ये फिर से नमी देगी।


फरक बेटे  औ बेटी  में है बस महसूस करने का,
वो तुमको रोशनी देगा ये तुमको चांदनी देगी।


ये मां से भी अधिक उजली इसे मलबा न होने दो,
ये गंगा है यही दुनिया को फिर से जिंदगी देगी॥

आज़मगढ़ के गौरव श्री जगदीश प्रसाद बरनवाल कुंद

 श्री जगदीश प्रसाद बरवाल कुंद जी आज़मगढ़ जनपद के साथ हिन्दी साहित्य के गौरव और मनीषी हैं. लगभग 15 से अधिक पुस्तकों का प्रणयन कर चुके कुंद साहब...