Tuesday 15 November 2016

एक गीत -बुन रही होगी शरद की चांदनी


चित्र -गूगल से साभार 


एक गीत -बुन रही होगी शरद की चांदनी 

बुन रही होगी 
शरद की 
चांदनी स्वेटर गुलाबी |

दबे पांवों 
सीढ़ियाँ चढ़ 
हम छतों पर टहल आयें ,
कनखियों 
से देखकर फिर 
होठ काटें मुस्कुरायें ,
चलो ढूंढें 
फिर दराजों में 
पुराने ख़त जबाबी |

बांसुरी से 
कहाँ मुमकिन 
कठिन ऋतुओं को रिझाना ,
शाल ओढ़े 
कहीं देवानंद 
बनकर गुनगुनाना ,
नहीं होते हैं 
कहीं संगीत 
चिड़ियों के किताबी |

शून्य में 
अपलक निहारे 
टिमटिमाते हुए तारे ,
अब दिशाओं में 
नहीं माँ बोल 
मीठे हैं तुम्हारे !
कहीं अपनापन 
नहीं है 
ढूंढ आया किचन ,लाबी |


Wednesday 9 November 2016

एक गीत -ये बनारस है



काशी /बनारस 


एक गीत -ये बनारस है 

ये बनारस है 
यहाँ रेशम न खादी है |
अष्टकमलों से 
महकती हुई वादी है |

वस्त्र तो इसके 
विचारों और मन्त्रों से बुने हैं 
इसे अपना घर स्वयं 
भगवान शंकर भी चुने हैं ,
यहाँ का कण -कण 
अघोरी या नमाजी है |

यहीं पर रैदास की वाणी 
पिघलती है 
गोद में लेकर इसे 
गंगा मचलती है 
यहाँ पूजा ,अर्चना 
प्रातः मुनादी है |

यहाँ घाटों पर 
चिलम के धुंए सजते हैं 
यहीं जीवन -मोक्ष के 
भी छंद रचते हैं 
यहाँ की हर एक सीढ़ी 
सरल -सादी है |

यह समय को रंग 
कितने रूप देता है 
यहाँ तुलसी छाँव 
कबिरा धूप देता है 
सभ्यताओं की 
यही माँ यही दादी है |

आरती गंगा जी की /सभी चित्र गूगल से साभार 

एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता

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