Saturday 26 September 2015

एक लोकभाषा कविता -ई सरहद के तोड़ी बनी विश्व भाषा

चित्र -गूगल से साभार 

एक लोकभाषा कविता -ई सरहद के तोड़ी बनी विश्व भाषा 
ई  हिंदी हौ भारत के 
जन -जन कै भाषा |
एकर होंठ गुड़हल हौ 
बोली बताशा |

इ तुलसी क चौपाई 
मीरा क बानी ,
एही में हौ परियन क 
सुन्दर  कहानी 
एही भाषा में सूरसागर 
रचल हौ 
जहाँ कृष्ण गोपिन 
क बचपन बसल हौ 
एही बोली -बानी में 
बिरहा -चनैनी 
इहै सोरठा हौ 
एही में रमैनी 

ई सोना हौ भैया 
न पीतल न कांसा |

ई भाषा शहीदन के 
माथे रहल हौ 
एही में आज़ादी कै
नारा गढ़ल हौ 
ई भाषा त कोहबर 
कियारी में हउवै
ई रसखान में हौ 
बिहारी में हउवै
एही भाषा में 
सन्त निर्गुण सुनावै 
एही भाषा में घाघ 
मौसम बतावैं 

एहि भाषा में हौ 
केतनी   बोली -विभाषा |

एही में लता कै
रफ़ी कै हौ गाना 
कि जेकर ई दुनिया 
बा आजौ दीवाना 
महाकुम्भ में एकर 
तम्बू तनाला 
जहाँ संत साधुन क 
प्रवचन सुनाला 
भले आज हिंदी हौ 
बनवासी सीता 
मगर एक दिन 
होई दुनिया क गीता 

ई सरहद के तोड़ी 
बनी विश्व भाषा |

Wednesday 16 September 2015

एक गीत -कवि डॉ ० शिवबहादुर सिंह भदौरिया

[स्मृतिशेष ]कवि -डॉ ० शिव बहादुर सिंह भदौरिया 

एक गीत -कवि डॉ ० शिवबहादुर सिंह भदौरिया
परिचय -डॉ 0शिवबाहादुर सिंह भदौरिया 
बैसवारे की मिट्टी में साहित्य के अनेक सुमन खिले हैं जिनकी रचनाशीलता से हिंदी साहित्य धन्य और समृद्ध हुआ है. स्मृतिशेष डॉ 0 शिव बहादुर सिंह भदौरिया भी इसी मिट्टी के कमालपुष्प है. 15 जुलाई सन 1927 को ग्राम धन्नी पुर रायबरेली में आपका जन्म हुआ. हिंदी नवगीत को असीम ऊँचाई प्रदान करने वाले भदौरिया जी डिग्री कालेज में प्रचार्य पद से सेवानिवृत हुए और 2013 में परलोक गमन हुआ. उनके सुपत्र भाई विनय भदौरिया जी स्वयं उत्कृष्ट नवगीतकार हैं और प्रत्येक वर्ष पिता की स्मृतियों को सहेजने के किए डॉ 0 शिवबहादुर सिंह सम्मान दो कवियों को प्रदान करते हैं.
स्मृतिशेष की स्मृतियों को नमन 

बैठी है 
निर्जला उपासी 
भादों कजरी तीज पिया |

अलग -अलग 
प्रतिकूल दिशा में 
सारस के जोड़े का उड़ना |

किन्तु अभेद्य 
अनवरत लय में 
कूकों, प्रतिकूलों का का जुड़ना |

मेरा सुनना 
सुनते रहना 
ये सब क्या है चीज पिया |

क्षुब्ध हवा का 
सबके उपर 
हाथ उठाना ,पांव पटकना 

भींगे कापालिक -
पेड़ों का 
बदहवास हो बदन छिटकना |

यह सब क्यों है 
मैं क्या जानूँ 
मुझको कौन तमीज पिया |


चित्र -गूगल से साभार 

Thursday 10 September 2015

एक गीत -गाद भरी झीलों की भाप से निकलते हैं

चित्र -गूगल से साभार 



एक गीत -
झीलों की भाप से निकलते हैं 

गाद भरी 
झीलों की 
भाप से निकलते हैं |
ऐसे ही 
मेघ हमें 
बारिश में छलते हैं |

खेतों को 
प्यास लगी 
शहरों में  पानी है ,
सिंहासन 
पर बेसुध 
राजा या रानी है ,
फूलों के 
मौसम में 
फूल नहीं खिलते हैं |

बांसों के 
झुरमुट में 
चिड़ियों के गीत नहीं ,
कोहबर 
की छाप लिए 
मिटटी की भीत नहीं ,
मुश्किल में 
हम अपनी 
खुद -ब -खुद उबलते हैं |

उत्सव के 
रंगों में 
लोकरंग फीका है ,
गुड़िया के 
माथ नहीं 
काजल का टीका है ,
कोई 
संवाद नहीं 
साथ हम टहलते हैं |

बार -बार 
एक नदी 
धारा को मोड़ रही ,
हिरणों की 
टोली फिर 
जंगल को छोड़ रही ,
मंजिल का 
पता नहीं 
राह सब बदलते हैं |

Sunday 6 September 2015

एक गंगा गीत -धार गंगा की बचाओ

चित्र -गूगल से साभार 

एक गंगा गीत 
फूल -माला 
मत चढ़ाओ 
धार गंगा की बचाओ |
मन्त्र पढ़ने 
से जरुरी 
भक्त जन कचरा उठाओ |

लहर जिस पर 
चांदनी के फूल 
झरते थे कभी ,
देव- ऋषि 
अपने सभी 
जलपात्र भरते थे कभी ,
उस नदी के 
नयन से 
अब अश्रुधारा मत बहाओ |

सिर्फ गंगा 
नहीं चम्बल 
बेतवा -यमुना तुम्हारी ,
ये रहेंगी 
तब रहेगी 
श्यामला धरती हमारी ,
इस भयावह 
दौर में कोई 
भागीरथ ढूंढ लाओ |

यह नदी 
होगी तभी 
ये पर्व ये मेले रहेंगे ,
सिर्फ़ नारों से 
नहीं ये 
विष भरे कचरे बहेंगे ,
उठो 
स्वर्णिम धार 
हो जाये नदी में ज्वार लाओ |

एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता

चित्र साभार गूगल  एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता सफ़र में धुंध सा बादल, कभी शजर आता इसी से चाँद मुक़म्मल नहीं नज़र आता बताता हाल मैं ...