Wednesday 23 December 2015

एक लोकभाषा कविता -नया साल हौ


एक लोकभाषा कविता -नया साल हौ 
आम आदमी 
फटेहाल हौ 
कइसे समझीं 
नया साल हौ 

धुंआ ओढ़िके
दिन फिर निकली 
फिर कोहरा फिर 
छाई बदली 
फिर पाला फसलन 
के मारी 
मौसम कै फिर 
चली कटारी 
किस्मत में 
सूखा -अकाल हौ 

परधानी में 
वोट बिकल हौ 
कैसे आपन देश 
टिकल हौ 
नियम -नीति कुछ 
समझ न आवै
राजनीति सबके 
भरमावै 
धुंआ -धुंआ 
सबकर मशाल हौ 

प्रेम और सद्भाव 
झुरायल 
रिश्ता -नाता 
सब हौ घायल 
दुनिया में 
आतंक मचल हौ 
अबकी खुद 
सरपंच फंसल हौ 
आंख -आंख में 
टुटल बाल हौ 
चित्र -गूगल से साभार 

5 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24-12-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2200 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. बहुत सुंदर रचना है सर जी
    क्या आप की इस रचना को फेसबुक पर पोस्ट कर सकते हैं आप के नाम से ही पोस्ट की जायेगीअगर आप अनुमति दें तो नही तो कोई बात नही रचना काफ़ी अच्छी है

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    Replies
    1. भाई धीरज जी मेरे नाम से आप इस रचना को पोस्ट कर सकते हैं या मेरे फेसबुक वाल से शेयर कर सकते हैं |

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  3. बहुत सुंदर रचना है सर जी
    क्या आप की इस रचना को फेसबुक पर पोस्ट कर सकते हैं आप के नाम से ही पोस्ट की जायेगीअगर आप अनुमति दें तो नही तो कोई बात नही रचना काफ़ी अच्छी है

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