Monday 5 January 2015

एक गीत आस्था का -यह प्रयाग है


यह प्रयाग है यहाँ धर्म की ध्वजा निकलती है 
यह प्रयाग है
यहां धर्म की ध्वजा निकलती है
यमुना आकर यहीं
बहन गंगा से मिलती है।

संगम की यह रेत
साधुओं, सिद्ध, फकीरों की
यह प्रयोग की भूमि,
नहीं ये महज लकीरों की
इसके पीछे राजा चलता
रानी चलती है।

महाकुम्भ का योग
यहां वर्षों पर बनता है
गंगा केवल नदी नहीं
यह सृष्टि नियंता है
यमुना जल में, सरस्वती
वाणी में मिलती है।

यहां कुमारिल भट्ट
हर्ष का वर्णन मिलता है
अक्षयवट में धर्म-मोक्ष का
दीपक जलता है
घोर पाप की यहीं
पुण्य में शक्ल बदलती है।

रचे-बसे हनुमान
यहां जन-जन के प्राणों में
नागवासुकी का भी वर्णन
मिले पुराणों में
यहां शंख को स्वर
संतों को ऊर्जा मिलती है।

यहां अलोपी, झूंसी,
भैरव, ललिता माता हैं
मां कल्याणी भी भक्तों की
भाग्य विधाता हैं
मनकामेश्वर मन की
सुप्त कमलिनी खिलती है।

स्वतंत्रता, साहित्य यहीं से
अलख, जगाते हैं
लौकिक प्राणी यही
अलौकिक दर्शन पाते हैं
कल्पवास में यहां
ब्रह्म की छाया मिलती है |
[यह गीत मैंने २००१ के महाकुम्भ में लिखा था दुबारा पोस्ट कर रहा हूँ ]

6 comments:

  1. सुंदर नवगीत ...

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर रचना , बड़े दिनों बाद आपकी रचना पढ़ रही हूँ !

    ReplyDelete
  3. शानदार सार्थक मनमोहक प्रस्तुति...

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी हमारा मार्गदर्शन करेगी। टिप्पणी के लिए धन्यवाद |

एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता

चित्र साभार गूगल  एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता सफ़र में धुंध सा बादल, कभी शजर आता इसी से चाँद मुक़म्मल नहीं नज़र आता बताता हाल मैं ...