Sunday 20 July 2014

एक गीत -इस रक्तरंजित सुब्ह का मौसम बदलना

चित्र -गूगल से साभार 

एक गीत -
इस रक्तरंजित सुबह का मौसम बदलना 

इस रक्त रंजित 
सुब्ह का 
मौसम बदलना |
या गगन में 
सूर्य कल 
फिर मत निकलना |

द्रौपदी 
हर शाख पर 
लटकी हुई है ,
दृष्टि फिर 
धृतराष्ट्र की 
भटकी हुई है ,
भीष्म का भी 
रुक गया 
लोहू उबलना |

यह रुदन की 
ऋतु  नहीं ,
यह गुनगुनाने की ,
तुम्हें 
आदत है 
खुशी का घर जलाने की ,
शाम को 
शाम -ए -अवध 
अब मत निकलना |

10 comments:

  1. बहुत अच्छा व्यंग्य गीत है। इसे फेसबुक में शेयर किया हूँ।

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  2. आक्रोश को शब्द देने के लिए आभार...

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  3. कविता इतनी मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है ।

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  4. आप सभी का शुक्रिया बहुत दिनों से ब्लॉग पर निष्क्रिय सा हो गया था |फिर भी आपका सहज स्नेह पाकर गदगद हूँ |आभार सहित

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  5. बढ़िया चित्रगीत।
    शायद कभी हालात बदलें!

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  6. उत्कृष्ट एवं समसामयिक ......

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  7. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ४५ साल का हुआ वो 'छोटा' सा 'बड़ा' कदम - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  8. बेहद उम्दा

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  9. द्रौपदी
    हर शाख पर
    लटकी हुई है ,
    दृष्टि फिर
    धृतराष्ट्र की
    भटकी हुई है ,
    भीष्म का भी
    रुक गया
    लोहू उबलना |
    ...............................हालात अब बदलने ही होंगे।

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