Wednesday 22 August 2012

एक गज़ल -आराकशी को आप हुनर मत बनाइये

चित्र -गूगल से साभार 
एक गज़ल -आराकशी को आप हुनर मत बनाइये 

आराकशी को आप हुनर मत बनाइये 
जंगल तबाह करके शहर मत बनाइये 

लौटेंगे शाम होते ही पंछी उड़ान से 
इन घोंसलों को फूँक के घर मत बनाइये 

ताज़ा हवा ,ये फूल ,ये खुशबू न छीनिए 
मुश्किल हमारा और सफ़र मत बनाइये 

ईजाद यूँ तो नस्लें नई कीजिये मगर 
बौना हो जिसका कद वो शज़र मत बनाइये 

पत्थर में भी हुनर  है तो तारीफ़ कीजिये 
जेहनों को इतना तंग नज़र मत बनाइये 

बस्ती ये पुर सुकून है दिल्ली में ही रहें 
अपना निवास आप इधर मत बनाइये 

काला धुआं है सिर्फ़ तरक्की के नाम पर 
वातावरण को आप ज़हर मत बनाइये 

इनका तो काम प्यास बुझाना है दोस्तों 
नदियों के दरमियान गटर मत बनाइये 

ख़बरों की असलियत का पता कुछ हमें भी है 
शोहरत के वास्ते ही ख़बर मत बनाइये 
चित्र -गूगल से साभार 

Sunday 19 August 2012

एक जनगीत -हमें तिवारी मत समझाओ

चित्र -गूगल से साभार 
एक जनगीत -हमें तिवारी मत समझाओ

जितना 
चाहो लूटो खाओ |
हमें तिवारी 
मत समझाओ |

बन्द न होंगे 
गोरखधन्धे ,
धृतराष्ट्रों के 
वंशज अन्धे ,
कोई इनको 
राह दिखाओ |

बस कुर्सी की 
रामकहानी ,
मरा हुआ 
आँखों का पानी ,
तुम टी० वी० 
पर गाल बजाओ |

खत्म हो 
रहा भाई चारा ,
गंगा -जमुना 
है बिन धारा ,
होली खेलो 
ईद मनाओ |

हर खिड़की 
पर मकड़ी जाले ,
कितने 
मगरमच्छ हो पाले ,
सूर्य मरे 
तुम राहु बचाओ |

धान कोयला -
खान बेच दो ,
देश -धरम 
ईमान बेच दो ,
तुम सब खाओ 
तुम्हीं पचाओ |

हम केवल 
वोटर ,मतदाता ,
आप हमारे 
भाग्यविधाता ,
जनता का 
विश्वास बचाओ |

खून -पसीना 
हमीं बहाते ,
जनगण मन 
का गीत सुनाते ,
और तिरंगा 
तुम फहराओ |

सरकारी 
अफ़सर मतवाले ,
प्याज ,नमक 
रोटी के लाले ,
रोज तेल के 
दाम बढ़ाओ |

कौन आँख की 
पट्टी खोले ,
पक्ष -विपक्ष 
एक सुर बोले ,
गाँव उजाड़ो 
माँल बनाओ |

जगह -जगह 
हिंसा ,अफवाहें ,
मुश्किल में 
जनता की राहें ,
अपराधी जो 
उसे बचाओ |

Saturday 18 August 2012

एक प्रेम गीत -मैं तुझमें तू कहीं खो गयी

चित्र -गूगल से साभार 
एक प्रेमगीत -मैं तुझमें तू कहाँ खो गयी 

यह भी क्षण 
कितना सुन्दर है 
मैं तुझमें तू कहीं खो गयी |
इन्द्रधनुष 
की आभा से ही 
प्यासी धरती हरी हो गयी |

जीवन बहती नदी 
नाव तुम ,हम 
लहरें बन टकराते हैं ,
कुछ की किस्मत 
रेत भुरभुरी कुछ 
मोती भी पा जाते हैं ,
मेरी किस्मत 
बंजारन थी 
जहाँ पेड़ था वहीँ सो गयी |

तेरी इन 
अपलक आँखों में 
आगत दिन के कुछ सपने हैं ,
पांवों के छाले 
मुरझाये अब 
फूलों के दिन अपने हैं ,
मेरा मन 
कोरा कागज था 
उन पर तुम कुछ गीत बो गयी |
चित्र -गूगल से साभार 
[ सबसे ऊपर लगे चित्र को देखकर ही इस गीत को लिखने का भाव प्रकट हुआ |इधर कुछ दिनों से लिखना मुश्किल हो रहा है फिर भी कोशिश कर रहा हूँ |]

Wednesday 15 August 2012

बापू तेरे सपनों वाली वह आज़ादी कहाँ गयी ?

चित्र -गूगल से साभार 
बापू तेरे सपनोंवाली वह आज़ादी कहाँ गयी ?
बापू तेरे सपनों वाली
वह आज़ादी कहाँ गयी |
तुम जिसको चरखे में 
बुनते थे वह खादी कहाँ गयी |

नेता ,मंत्री खुलेआम 
अब सिर्फ़ तिजोरी भरते हैं .
सत्यमेवजयते को 
हर दिन झूठा साबित करते हैं ,
राजनीति वह पहलेवाली 
सीधी -सादी कहाँ गयी |

ठेकेदार व्यवस्था वाले 
राजमार्ग सब टूटे हैं ,
जन को पूछे कहाँ सियासत 
करम हमारे फूटे हैं ,
और अधिक पाने में 
अपनी रोटी आधी कहाँ गयी |

राजा जितना गूंगा -बहरा 
उतने ही हरकारे हैं ,
बंजर धरती ,कर्ज किसानी 
हम कितने बेचारे हैं ,
रामराज के सपनों वाली 
वह शहजादी कहाँ गयी |

जो भी सूर्य उगाते हैं हम 
उसको राहु निगल जाता है ,
सत्ता पाकर धर्मराज भी 
अक्सर यहाँ फिसल जाता है ,
जो सबका सुख दुःख सुनती थी 
वह आबादी कहाँ गयी |

यह मिट्टी हिन्दुस्तान की -एक देशगान आज़ादी के पावन पर्व पर

चित्र -गूगल से साभार 
स्वतन्त्रता दिवस के पावन राष्ट्रीय पर्व पर  बधाई और शुभकामनाओं के साथ 


एक गीत -यह मिट्टी हिन्दुस्तान की 

इस मिट्टी का क्या कहना 
यह मिट्टी हिन्दुस्तान की |
यह गुरुनानक ,तुलसी की है 
यह दादू ,रसखान की |

इसमें पर्वतराज हिमालय ,
कल-कल झरने बहते हैं ,
इसमें सूफ़ी ,दरवेशों के 
कितने कुनबे रहते हैं ,
इसकी सुबहें और संध्यायें 
हैं गीता ,कुरआन की |

यहाँ कमल के फूल और 
केसर खुशबू फैलाते हैं ,
हम आज़ाद देश के पंछी 
नीलगगन में गाते हैं ,
इसके होठों की लाली है 
जैसे मघई पान की |

सत्य अहिंसा ,दया ,धर्म की 
आभा इसमें रहती है ,
यही देश है जिसमें 
गंगा के संग जमुना बहती है ,
अपने संग हम रक्षा करते 
औरों के सम्मान की |

गाँधी के दर्शन से अब भी 
इसका चौड़ा सीना है ,
अशफाकउल्ला और भगत सिंह 
का यह खून -पसीना है ,
युगों -युगों से यह मिट्टी है 
त्याग और बलिदान की |
चित्र -गूगल से साभार 

Friday 3 August 2012

बादल आ गए -कवि - कैलाश गौतम

लोकप्रिय कवि -कैलाश गौतम 
समय -[08-01-1944से 09-12-2006]
एक गीत -लो पढ़ो यह आज का अखबार बादल आ गए -कैलाश गौतम 
आ गए 
उस पार से इस पार 
बादल आ गए |
लो पढ़ो 
यह आज का अखबार 
बादल आ गए |

पर्वतों को लाँघते 
झकझोरते जंगल 
हवा से खेलते बादल ,
घाटियों को गुदगुदाते 
छेड़ते झरने 
शिलाएँ ठेलते बादल ,
लिख गई 
चारो तरफ जलधार 
बादल आ गए |

केवड़े फूले 
पकी जामुन ,नदी लौटी 
पसीना खेत में महका ,
घाट पर फूटे घड़े 
पनिहारिनें बिछ्लीं 
कछारों में हिरन बहका 
भीड़ में 
खुलकर मिले त्यौहार 
बादल आ गए |

भीड़ के हाथों लगी 
झूले चढ़ीं 
मीठी फुदकती कजलियाँ भोली 
घर चलो 
मेरी पहाड़ी नगीनों अब 
गुनगुनाती तितलियाँ बोलीं 
पटरियों से 
उठ गए बाज़ार 
बादल आ गए |
चित्र -गूगल से साभार 

एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता

चित्र साभार गूगल  एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता सफ़र में धुंध सा बादल, कभी शजर आता इसी से चाँद मुक़म्मल नहीं नज़र आता बताता हाल मैं ...