Saturday 5 March 2011

मेरी दो ग़ज़लें


चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 


एक 

सलीका बांस को बजने का जीवन भर नहीं होता 
बिना होठों के वंशी का भी मीठा स्वर नहीं होता 

किचन में माँ बहुत रोती है पकवानों की खुशबू में 
किसी त्यौहार पर बेटा जब उसका घर नहीं होता 

ये सावन गर नहीं लिखता हंसी मौसम के अफसाने 
कोई भी रंग मेंहदी का हथेली पर नहीं होता 

किसी बच्चे से उसकी माँ को वो क्यों छीन लेता है 
अगर वो देवता होता तो फिर पत्थर नहीं होता 

परिंदे वो ही जा पाते हैं ऊँचे आसमानों तक 
जिन्हें सूरज से जलने का तनिक भी डर नहीं होता 

दो 

गर ये रहबर ही निठारी के हलाकू देंगे 
हम भी बच्चों को खिलौना नहीं चाकू देंगे 

धूप दे या घना कोहरा दे ये मौसम जाने 
हम तो एक फूल हैं हर हाल में खुशबू देंगे 

आप गुलमोहरों का साथ निभाते रहिये 
इस इमारत को बुलंदी तो ये साखू देंगे 

आप आलिम हैं तो बच्चों को पढ़ाते रहिये 
अब सियासत को हरेक मशवरा उल्लू देंगे 

घर हो मिट्टी का या पत्थर का वहीं पर चलिए 
तेज आंधी में सहारा कहाँ तम्बू देंगे 
चित्र -गूगल से साभार 
[मेरी प्रथम गज़ल आजकल और आधारशिला के गज़ल विशेषांक में प्रकाशित हो चुकी है ]


8 comments:

  1. किचन में माँ बहुत रोती है पकवानों की खुशबू में
    किसी त्यौहार पर बेटा जब उसका घर नहीं होता

    bahut khoob. badhaee sweekaren

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  2. ये सावन गर नहीं लिखता हंसी मौसम के अफसाने
    कोई भी रंग मेंहदी का हथेली पर नहीं होता

    किसी बच्चे से उसकी माँ को वो क्यों छीन लेता है
    अगर वो देवता होता तो फिर पत्थर नहीं होता
    Wah! Behad khoobsoorat!

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  3. गर ये रहबर ही निठारी के हलाकू देंगे
    हम भी बच्चों को खिलौना नहीं चाकू देंगे
    Kamaal kaa likha hai!

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  4. किचन में माँ बहुत रोती है पकवानों की खुशबू में
    किसी त्यौहार पर बेटा जब उसका घर नहीं होता
    निशब्द करते शब्द .... बेहतरीन ग़ज़लें हैं दोनों .....

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  5. '
    परिंदे वो ही जा पाते हैं ऊँचे आसमानों तक
    जिन्हें सूरज से जलने का तनिक भी डर नहीं होता '
    sunder sher hai

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  6. अब किसकी तरी करूँ एक की करूँगा तो दूसरी नाराज और दोनों की नहीं करूँगा तो आप नाराज .....अब इतना कहूँगा ....आप इसी तरह हमें भाव विभोर करते रहें ...और अपनी रचनात्मकता से ब्लॉग जगत को समृद्ध करते रहें ....आपका आभार

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  7. ये सावन गर नहीं लिखता हंसी मौसम के अफसाने
    कोई भी रंग मेंहदी का हथेली पर नहीं होता

    तुषार जी ... दोनों ही जबरदस्त ... एक से बढ़ कर एक ग़ज़लें हैं ...
    बहुत कमाल का लिखते हैं आप ....

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  8. परिंदे वो ही जा पाते हैं ऊँचे आसमानों तक
    जिन्हें सूरज से जलने का तनिक भी डर नहीं होता।

    तुषार जी, बहुत प्रभावशाली हैं दोनों ग़ज़लें।

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