Thursday 30 December 2010

नये साल की उफ! कितनी तस्वीर घिनौनी है।

चित्र -गूगल से साभार 
एक नवगीत -नये साल की उफ़ !कितनी तस्वीर घिनौनी है 
नये साल की उफ़ !
उफ!  कितनी
तस्वीर घिनौनी है।
फिर
अफवाहों से ही
अपनी आंख मिचौनी है।


वही सभी
शतरंज खिलाड़ी
वही पियादे हैं,
यहां हलफनामों में भी
सब झूठे वादे हैं,
अपनी मूरत से
मुखिया की
मूरत बौनी है।


आंगन में
बंटकर तुलसी का
बिरवा मुरझाया,
मझली भाभी का
दरपन सा
चेहरा धुंधलाया,
मछली सी
आंखों में
टूटी एक बरौनी है।


गेहूं की
बाली पर बैठा
सुआ अकेला है,
कहासुनी की
मुद्राएं हैं
दिन सौतेला है,
दिन भर बजती
दरवाजे की
सांकल मौनी है।

चित्र से  गुगल सर्च से साभार

Monday 27 December 2010

एक गीत -स्वागत आगन्तुक दिनमान का

चित्र -गूगल से साभार 
कल का सूरज
डूबा, स्वागत!
आगन्तुक दिनमान का।
यह सम्वत
शायद कुछ बदले
चेहरा रेगिस्तान का।

बहुत
बदलना चाहे लेकिन
मौसम नहीं बदलता है,
हरियाली का
स्वप्न आंख में
धू-धू करके जलता है,
चैमासे में
खेत पड़ा है
मुंह पीला खलिहान का।

हंसे कुंवारी
धूप हल्दिया
मैना आंगन चहके,
अरुणिम
आभा से पलाश की
जंगल घाटी दहके,
आछी के
फूलों सा महके
हर कोना दालान का।

सिर पर
ओढ़े रात चांदनी
लहरिल मोती झील हो,
चहल पहल में
मन का गहरा
सन्नाटा तब्दील हो,
जूड़े-जूड़े
फूल टांकता
हाथ बढ़े पवमान का।

पल्लव
अधरों से फिर ऋतुएं
छन्द पढ़ें अमराई के,
हर उत्सव में
पंडवानी के गीत
हों तीजन बाई के,
स्वागत करें
सुआ पिंजरे से
घर आये मेहमान का।

Sunday 5 December 2010

बड़की भौजी - कवि कैलाश गौतम

 कवि कैलाश गौतम
कैलाश गौतम हिन्दी के अप्रतिम कवि हैं। गीत, कविता, दोहे, व्यंग्य कोई भी विषय उनकी कलम के लिए अपरिचित नहीं है। काव्यमंचों पर श्रोताओं के मन को झकझोरने वाले इस कवि की रचनाओं में विविधता देखने को मिलती है। कैलाश जी के बारे में सुप्रसिद्ध गीतकवि यश मालवीय कहते हैं - ‘‘कैलाश गौतम रिश्तों की छुवन और सम्बन्धों की मिठास के अप्रतिम कवि हैं। उनकी कविता ‘बड़की भौजी’ भारतीय जनमानस में पैठी पूजा-प्रार्थना जैसी एक ऐसी स्त्री है जो घर-परिवार को दिये की लौ की तरह प्रतिक्षण सहेजती रहती है। आत्मीयता का आलोक कदम-कदम पर अभिव्यंजित करने वाले कैलाश जी शायद इसीलिए अपने समकालीनों के बीच एकदम अलग खड़े किनारे के पेड़ जैसे नजर आते हैं।’’

09 दिसम्बर कैलाश गौतम की चैथी पुण्यतिथि है। इस अवसर पर हम उनकी लोकप्रिय रचना ‘बड़की भौजी’ अपने पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं -

 बड़की भौजी- कवि कैलाश गौतम

जब देखो तब बड़की भौजी हंसती रहती है
हंसती रहती है कामों में फंसती रहती है
झर-झर झर झर हंसी होठ पर झरती रहती है
घर का खाली कोना भौजी भरती रहती है।।

डोरा देह कटोरा आंखें जिधर निकलती है
बड़की भौजी की ही घंटों चर्चा चलती है
खुद से बड़ी उमर के आगे झुककर चलती है
आधी रात गये तक भौजी घर में खटती है।।

कभी न करती नखरा तिल्ला सादा रहती है
जैसे बहती नाव नदी में वैसे बहती है
सबका मन रखती है घर में सबको जीती है
गम खाती है बड़की भौजी गुस्सा पीती है।।

चौका चूल्हा खेत कियारी सानी पानी में
आगे-आगे रहती है कल की अगवानी में
पीढ़ा देती पानी देती थाली देती है
निकल गयी आगे से बिल्ली गाली देती है।।

भौजी दोनों हाथ दौड़कर काम पकड़ती है
दूध पकड़ती दवा पकड़ती दाम पकड़ती है
इधर भागती उधर भागती नाचा करती है
बड़की भौजी सबका चेहरा बांचा करती है।।

फुर्सत में जब रहती है खुलकर बतियाती है
अदरक वाली चाय पिलाती पान खिलाती है
भइया बदल गये पर भौजी बदली नहीं कभी
सास के आगे उलटे पल्ला निकली नहीं कभी।।

हारी नहीं कभी मौसम से सटकर चलने में
गीत बदलने में है आगे राग बदलने में
मुंह पर छींटा मार मार कर ननद जगाती है
कौआ को ननदोई कहती हंसी उड़ाती है।।

बुद्धू को बेमशरफ कहती भौजी फागुन में
छोटी को कहती है गरी चिरौंजी फागुन में
छठे समासे गंगा जाती पुण्य कमाती है
इनकी उनकी सबकी डुबकी स्वयं लगाती है।।

आंगन की तुलसी को भौजी दूध चढ़ाती है
घर में कोई सौत न आये यही मनाती है
भइया की बातों में भौजी इतना फूल गयी
दाल परसकर बैठी रोटी देना भूल गयी।।
चित्र से picasaweb.google.com साभार

एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता

चित्र साभार गूगल  एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता सफ़र में धुंध सा बादल, कभी शजर आता इसी से चाँद मुक़म्मल नहीं नज़र आता बताता हाल मैं ...